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प्रतीकों का मोहताज नहीं न्याय

07:02 AM Oct 22, 2024 IST
प्रतीकों का मोहताज नहीं न्याय
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के.पी. सिंह

कुछ माह पहले सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चन्द्रचूड़ ने उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के पुस्तकालय में न्याय-देवी की नई प्रतिमा का अनावरण किया था। ऐसा विचार है कि न्यायाधीशों की गैलरी की दीवार पर उकेरे गए एक भित्ति चित्र ने सीजेआई को भारतीय न्याय प्रणाली की विकसित प्रकृति का दस्तावेजीकरण करने के लिए न्याय प्रतिमा का भारतीयकरण करने का विचार दिया होगा। भित्ति चित्र में न्याय-देवी को एक भारतीय देवी के परिधान में चित्रित किया गया है, जिसकी आंखें खुली हैं और आंखों पर पट्टी भी नहीं है, पारम्परिक तलवार के स्थान पर देवी के हाथ में एक किताब (परिकल्पना है कि यह भारत का संविधान है) दिखाई देती है, जो इस बात का प्रतीक है कि नए भारत में न्याय अंधा नहीं है, और न ही केवल सज़ा देना न्याय प्रणाली का एकमात्र उद्देश्य है।
लम्बे समय से न्यायपालिका और कानूनी संस्थानों से जुड़ी न्याय-देवी की प्रतिमा के डिजाइन में संशोधन को कुछ कानूनी जानकार और मीडिया के लोग भारत की न्याय प्रणाली को उपनिवेशवाद की छाया से बाहर निकालने की कवायद के रूप में भी देख रहे हैं, यद्यपि ऐसा प्रतीत नहीं होता है।
न्याय-देवी की अवधारणा, चाहे वह पेंटिंग, मूर्ति अथवा धातु की मूर्ति के रूप में हो, दुनिया के लिए नई नहीं है। यह प्राचीन यूनान और मिस्र की सभ्यताओं से जुड़े मिथकों में हजारों वर्ष पहले से मौजूद रही है। ग्रीक देवी थेमिस, कानून, व्यवस्था और न्याय का प्रतीक मानी जाती है। मिस्र के लोग ‘मात’ को न्याय का प्रतिरूप मानते रहे हैं जिसके हाथ में तलवार और सत्य के पंख होते हैं। न्याय की देवी का सबसे सीधा और सरल प्रतिरूपण रोमन सभ्यता में देवी जस्टिसिया को माना गया है, जिसकी छवि आधुनिक समय में बनाई गई न्याय-देवी की प्रतिमा से मेल खाती है। देवी जस्टिसिया नैतिकता और न्याय निरूपण करने वाली मानी जाती रही है।
न्याय-देवी की प्रतिमा का कोई सार्वभौमिक डिजाइन नहीं है और इसका स्वरूप अलग-अलग देशों में भिन्न-भिन्न अंगीकृत किया गया है। कुछ स्थानों पर न्याय-देवी को सर्प को कुचलते हुए चित्रित किया गया है जो यह प्रदर्शित करता है कि दुराचारियों और भ्रष्टाचार पर अन्ततः न्याय की ही जीत होती है। वहीं दूसरी ओर कुछ प्रतिमाओं में सर्प गायब है। भारतीय न्याय-देवी की नई प्रतिमा में भी सर्प दिखाई नहीं देता है।
न्याय की प्रतिमा के सभी रूपों में तराजू दृष्टिगोचर होती है जो न्याय में निष्पक्षता और न्यायाधीशों द्वारा उनके समक्ष प्रस्तुत सभी साक्ष्यों को परखने के उनके दायित्व का बोध कराती है। न्याय-देवी की प्राचीन प्रतिमाओं में उसकी आंखों पर काली पट्टी नहीं होती थी, आंखों पर काली पट्टी का प्रचलन पहली बार सोलहवीं शताब्दी में शुरू हुआ था। ज़ाहिर तौर पर उस समय काली पट्टी इस बात की प्रतीक थी कि न्याय प्रणाली में कई निर्दोष लोग भी कानून की अज्ञानता और पेचीदगियों के कारण भुक्तभोगी होते हैं। कालान्तर में काली पट्टी को कानून की निष्पक्षता और कानून के समक्ष सब की बराबरी के रूप में देखा जाने लगा। काली पट्टी इस बात के प्रतीक के रूप में स्थापित हो गई कि न्याय के सामने राजनीति, धन-दौलत और शोहरत मायने नहीं रखती।
उच्चतम न्यायालय ने गोधरा दंगों की पीड़िता जाहिरा शेख के मामले में वर्ष 2004 में न्याय-देवी की आंखों पर बंधी काली पट्टी की व्याख्या की थी जब जाहिरा तीन बार अदालत के सामने अपने दिये गये बयानों से मुकर गई थी। अदालत ने कहा था कि काली पट्टी केवल एक झीना पर्दा है जिसे उठाकर अदालतों को यह देखना चाहिए कि उनके समक्ष उपस्थित व्यक्ति कौन है और वह कैसे व्यवहार कर रहा है। इस प्रकार भारतीय उच्च न्यायालय ने काली पट्टी को एक पारदर्शी पर्दे की संज्ञा देकर यह साबित किया था कि कानून अंधा नहीं हो सकता और उसमें परिस्थितियों को देखने की क्षमता है।
न्याय-देवी की नई प्रतिमा की आंखों से हटाई गई पट्टी को न्याय-विशेषज्ञों द्वारा एक नए युग की शुरुआत के रूप में देखा जा रहा है, जिसमें न्याय वादियों की हैसियत और धन-दौलत से प्रभावित नहीं होगा। प्रधान न्यायाधीश चन्द्रचूड़ ने भी आंखों पर पट्टी को हटाने को यह कहते हुए उचित ठहराया है कि कानून अंधा नहीं होता है, वह सभी को समान रूप से देखता है।
दूसरी ओर, विभिन्न बुद्धिजीवियों और दार्शनिकों का मानना है कि न्याय-देवी की आंखों से पट्टी को हटा देने और हाथ में तलवार के स्थान पर संविधान की प्रति धारण करवा देने को न्याय की अवधारणा का भारतीयकरण नहीं माना जा सकता, जैसा कि कुछ अति-उत्साही समूहों द्वारा प्रचारित किया जा रहा है। उनका मानना है कि वैदिक तथा पौराणिक मिथकों में शनि देव और यमराज को न्याय के देवता के रूप में प्रतिबिम्बित किया जाता रहा है, शनि देव जीवित व्यक्तियों और यमराज मृतकों के साथ न्याय करते हैं। यदि न्याय-देवी का भारतीयकरण करना ही था तो इन देवताओं में से किसी को भी न्याय का प्रतीक मान लेना ज्यादा उचित होता।
आलोचकों का यह भी तर्क है कि न्याय-देवी के हाथ में तलवार के स्थान पर संविधान की प्रति को थमाना भी युक्तिसंगत नहीं है। परम्परागत रूप से प्रत्येक भारतीय देवी-देवता के शरीर पर कोई न कोई अस्त्र-शस्त्र विभूषित होता है जो यह संदेश देता है कि उनमें दुष्टों के दमन करने की शक्ति भी निहित है। तलवार अदालत के फैसलों को हर हालत में लागू करवाने और बुराइयों के नष्ट करने का प्रतीक है, जबकि संविधान की किताब कानून के महत्व को दर्शाती है। वस्तुतः न्याय अधूरा है जब तक उसे लागू करने के लिए न्याय प्रणाली के हाथ में दमनकारी शक्तियां न हो।
कानून और न्याय दो अलग-अलग अवधारणाएं हैं। आॅल इंडिया जजिज प्रकरण (1992) में जस्टिस कृष्णा अय्यर ने कहा था कि कानून लक्ष्य को प्राप्त करने का एक जरिया होता है और न्याय ही वह लक्ष्य है। इसलिए शस्त्र के बिना न्याय-देवी की प्रतिमा अधूरी ही है क्योंकि इसमें न्यायालय के फैसले को लागू करने वाले दमनकारी अस्त्र-शस्त्र का समावेश नहीं है। वह न्याय अधूरा ही रहेगा जिसे लागू न किया सके।
कुछ मीडिया की रिपोर्टों में यह कहा जा रहा है कि न्याय-देवी की नई प्रतिमा न्याय प्रणाली के उपनिवेशवाद से मुक्ति का प्रतीक भी है। यह कथन सही प्रतीत नहीं होता है क्योंकि न्याय की अवधारणा का प्रतिरूपण हजारों वर्ष पुराना है जबकि उपनिवेशवाद उसके बहुत बाद की हकीकत है।
इसलिए, यही सही होगा कि न्याय-देवी की नई प्रतिमा के प्रतीकों में ज्यादा कुछ न पढ़ा जाए, हालांकि कला के रूप में उनके ऐतिहासिक महत्व को नकारा नहीं जा सकता। न्याय प्रतीकों का मोहताज नहीं है, उसके अनेक आयाम और रंग हैं। अदालतों के बाहर न्याय की प्रतीक्षा में घूम रहे लोगों के चेहरों पर पढ़ा जा सकता है और समाज में व्याप्त शान्ति और व्यवस्था ही न्याय का सही निरूपण करते हैं।

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लेखक हरियाणा के पुलिस महानिदेशक रहे हैं।

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