त्याग में आनंद
संत शिरोमणि रैदास के पास उनका एक प्रेमी जमींदार वेश बदलकर जूते बनवाने गया। जूते बनवाकर उसने उनको सौ गुना कीमत अदा करनी चाही लेकिन रैदास ने केवल वाजिब दाम लेकर सब वापस कर दिया यह कहते हुए कि आपके संस्कार जमा करने के हैं, मगर मुझे तो त्याग में जो आनंद रस मिलता है, उसको मैं अभिव्यक्त ही नहीं कर सकता। उनकी इसी संतोषी प्रवृत्ति तथा मधुर व्यवहार के कारण उनके सम्पर्क में आने वाले लोग बहुत प्रसन्न रहते थे। रैदास ने साधु-सन्तों की संगति से पर्याप्त व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया था। जूते बनाने का काम उनका पैतृक व्यवसाय था और उन्होंने इसे सहर्ष अपनाया। वे अपना काम पूरी लगन तथा परिश्रम से करते थे और समय से काम को पूरा करने पर बहुत ध्यान देते थे। प्रारम्भ से ही रैदास बहुत परोपकारी तथा दयालु थे और दूसरों की सहायता करना उनका स्वभाव बन गया था। साधु-सन्तों की सहायता करने में उनको विशेष आनन्द मिलता था। वे उन्हें प्राय: मूल्य लिये बिना जूते भेंट कर दिया करते।
प्रस्तुति : मुग्धा पांडे