दान से आनंद
शांति निकेतन की स्थापना के बाद टैगोर के पास कुछ यूरोपियन शोधार्थी आये और उनकी दानशीलता पर हतप्रभ रह गये। एक ने पूछा, ‘गुरुदेव क्या देने से सचमुच आनंद प्राप्त होता है?’ टैगोर बोले, ‘मित्र! दान देने से वास्तविक आनंद प्राप्त होता है। वैसे दान विभिन्न तरह का हो सकता है। मसलन, भारत में अतिथि सत्कार इस प्रकार का होता है कि वहां पर कोई व्यक्ति बिना अपने साथ कुछ लिए उत्तर से दक्षिण तक यात्रा कर सकता है। उसका ऐसा सत्कार होगा मानो वह परम मित्र हो। यह भी एक प्रकार का दान है। किसी व्यक्ति को शिक्षित करना, आर्थिक रूप से उसकी मदद करना, भूखे को भोजन कराना, भटके हुए को सही मार्ग दिखाना, जरूरतमंद की मदद करना सभी दान के रूप हैं। हां, दान करते समय मन की धारणा अवश्य सच्ची होनी चाहिए। दान वह होता है जो नि:स्वार्थ भाव से दिया जाता है।’ शोधार्थी बोला गुरुवर, क्या दान धर्म का एक रूप है? उसकी बात पर टैगोर बोले, ‘दान से बढ़कर और कोई धर्म नहीं है।’ तभी एक अन्य ने पूछा, ‘क्या दान देने वाला व्यक्ति उस व्यक्ति से बेहतर है जो दान नहीं करता?’ टैगोर बोले, ‘जो व्यक्ति नि:स्वार्थ भाव और प्रेम से दान करता है वह उत्तम पुरुष है। प्रभु ने दो हाथ इसलिए बनाए हैं ताकि इनके माध्यम से हम नेक कर्म करें। याद रखो दान देने से व्यक्ति का धन, मान-सम्मान और ज्ञान सौ गुना बढ़ता है। दान से प्राप्त आनंद श्रेष्ठ होता है जो जीवन में सुख देता है।’ प्रस्तुति : पूनम पांडे