नौकरी
लघुकथाएं
अशोक भाटिया
वे भयंकर बेरोज़गारी के दिन थे। एक कॉलेज के किसी कार्यक्रम में एक विद्वान बी.ए. अंतिम वर्ष के विद्यार्थियों से मुखातिब था। उनकी बातचीत का एक अंश प्रस्तुत है :
‘आपमें से कौन-कौन नौकरी करना चाहते हैं?’
सभी ने हाथ उठा दिए।
‘आपको चौबीस घंटे नौकरी करनी होगी।’ सुनकर लगभग सभी हाथ नीचे हो गए– ‘हमें गधा समझ रखा है क्या?’
‘चलो, कुछ देर जैसे-कैसे आराम को भी मिल जाएगा।’
यह सुन कुछ हाथ फिर खड़े हुए, लेकिन आशंका के साथ।
विद्वान कुछ मुस्कराया, फिर बोला— ‘आपको खाने-पीने का समय मिल पाएगा, इसकी गारंटी नहीं है।’
सुनकर सन्नाटा छा गया। कुछ हाथ फिर नीचे हो गए। खड़े हाथों में से कुछ ने सोचा—वैसे ही कह रहे होंगे।
‘हमारी इच्छा मुताबिक काम न होने पर डांट भी पड़ सकती है।’ यह सुनकर बचे हुए ज्यादातर हाथ फ़ौरन नीचे हो गए।
‘आपको काम की तनख्वाह नहीं मिलेगी। आपके काम की कद्र भी नहीं की जाएगी।’ यह सुनते ही बाकी के सभी हाथ नीचे हो गए। हमें बुद्धू बना रहे हैं। पैसे के लिए ही तो नौकरी की जाती है। सभी विद्यार्थी ठगे हुए-से महसूस कर रहे थे।
‘आप सोचते होंगे, कोई क्यों करेगा ऐसी नौकरी?’
‘हां जी।’ सभी ने एक स्वर में ज़ोर से कहा।
‘लेकिन ऐसी नौकरी करने वाले मिल जाते हैं।’
विद्यार्थी आश्चर्य में पड़ गए— ‘क्या यह सच है!’ उनकी आंखों और चेहरों पर जिज्ञासा के साथ अविश्वास भी झलक रहा था।
विद्वान वक्ता ने मुस्कराकर कहा— ‘हम सबके घरों में मां ऐसी ही नौकरी करती है।’
सब विद्यार्थी एक-दूसरे की तरफ देखने लगे थे।