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पाक में जयशंकर

06:34 AM Oct 18, 2024 IST

भले ही इस्लामाबाद में भारत-पाकिस्तान की द्विपक्षीय वार्ता नहीं थी, लेकिन लगभग नौ साल बाद किसी भारतीय विदेश मंत्री की पहली पाकिस्तान यात्रा के गहरे निहितार्थ हैं। नई दिल्ली द्वारा इस यात्रा को हरी झंडी देना ही इस बात का प्रबल संकेत है कि पर्दे के पीछे से की जा रही कूटनीति सार्थक रही है। दरअसल, शंघाई सहयोग संगठन के सम्मेलन में भाग लेने के लिये विदेश मंत्री के इस्लामाबाद जाने के निर्णय ने कई उम्मीदें जगायी हैं। एससीओ सम्मेलन में भाग लेने जाने से पहले एस जयशंकर ने घोषणा की थी कि पाकिस्तान को लेकर भारत की विदेश नीति निष्क्रिय नीति नहीं है। निश्चित रूप से भारत सरकार की ओर से यह संकेत देने का प्रयास किया गया कि दिल्ली किसी भी सकारात्मक संकेत का जवाब देने के लिये पूरी तरह से तैयार है। ऐसा भी नहीं है कि पाकिस्तान की राजधानी में एससीओ सम्मेलन में एस जयशंकर अपनी दो टूक बात करने से चूके हों। उन्होंने इस्लामाबाद को साफ-साफ शब्दों में इस मंच के जरिये सभ्य तरीके से सुना दिया कि आतंकवाद, उग्रवाद और अलगाववाद को प्रश्रय देने वाली नीति ही संबंधों में बाधक है। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि ये नीतियां व्यापार गतिविधियों, ऊर्जा प्रवाह, कनेक्टिविटी और लोगों से लोगों के संवाद-संबंध बनाने में बाधक बनती हैं। उन्होंने अतीत में एक मंच पर भारत-पाक के बीच पैदा होने वाली परंपरागत कटुता को दरकिनार करते हुए भी कड़े शब्दों में भारत की नीति को जाहिर कर दिया। वहीं दूसरी ओर भले ही शिखर वार्ता की अभी कोई स्थिति बनती नजर नहीं आ रही है, लेकिन विदेश मंत्री एस जयशंकर की अपने पाकिस्तानी समकक्ष इशाक डार के साथ अनौपचारिक बातचीत से द्विपक्षीय संबंधों में लंबे समय से उत्पन्न रुकावट खत्म होने की उम्मीद जरूर जगी है। बहरहाल, इस बात में कोई संदेह नहीं है कि घात और बात की नीति साथ-साथ नहीं चल सकती। जिस ओर एस जयशंकर ने शंघाई सहयोग संगठन मंच का उपयोग करते हुए स्पष्ट इशारा किया भी है।
बहरहाल, इतना तो तय है कि यदि पाक अपनी पुरानी नीतियों को नहीं बदलता तो रिश्तों में जमी बर्फ के पिघलने की कोई गुंजाइश नहीं बचती। वैसे यह भी हकीकत है कि पाकिस्तान की रीतियों-नीतियों के चलते उससे सीमित जुड़ाव बनाये रखना भारतीय सरकारों के लिये भी एक चुनौती बनी हुई है। इस्लामाबाद, अन्य शब्दों में कहें तो पाकिस्तान सेना मुख्यालय रावलपिंडी की, बार-बार विश्वास को खंडित करने की नीति संबंधों को आगे बढ़ाने के प्रयासों में संदेह को जन्म देती है। यह एक हकीकत है कि आतंकवाद को प्रश्रय देने की पाक की नीति के चलते मेज पर वार्ता न करने के इच्छुक भारत को अपने अविश्वसनीय पड़ोसी के साथ संबंधों के विकल्प तलाशते रहने चाहिए। जिसमें बातचीत का माध्यम खुला रखना भी शामिल हैं। क्रिकेट डिप्लोमेसी भी अतीत की तरह भारत के लिये मददगार हो सकती है या नहीं, इस पर भी विचार करने की जरूरत है। लेकिन ये प्रयास लंबे समय से दोनों देशों के संबंधों में जमी बर्फ को पिघलाने में मददगार हो सकते हैं। निश्चित तौर पर एस. जयशंकर की पाकिस्तान यात्रा के सार्थक समापन को एक रचनात्मक उपलब्धि के तौर पर तो देखा जा सकता है। भले ही यह एक छोटा कदम हो, लेकिन आगे बढ़ने की दिशा में इस छोटे कदम को भी महत्वपूर्ण माना जा सकता है। हमें यह बात याद रखनी चाहिए कि भौगोलिक रूप से पाकिस्तान हमारा पड़ोसी है, जिसे बदला नहीं जा सकता। निश्चित रूप से अब गेंद पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ के पाले में है कि संबंधों को ईमानदारी से आगे बढ़ाने में वे कितनी शराफत दिखाते हैं। हालांकि, संबंधों को मजबूत करने में उनके भाई और पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ का ट्रैक रिकॉर्ड विश्वास करने लायक नहीं रहा है। वैसे भी भारत से संबंधों की नई पहल करने से शरीफ को पहले पाकिस्तान सेना से निपटना होगा। जो पर्दे के पीछे से पाकिस्तानी लोकतंत्र को चला रही है। बहरहाल, नई दिल्ली की इसके नतीजे को लेकर उत्सुकता से नजर रहेगी।

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