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दवा नियामकों के कामकाज की समीक्षा जरूरी

08:40 AM Apr 20, 2024 IST
दवा नियामकों के कामकाज की समीक्षा जरूरी
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दिनेश सी. शर्मा
पतंजलि आयुर्वेद के विज्ञापनों की तार्किकता को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में जारी कानूनी लड़ाई ने अनेकानेक कारणों से काफी जिज्ञासा जगाई है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पतंजलि के कर्ता-धर्ताओं बाबा रामदेव और बालकृष्ण को अदालत की अवमानना के लिए निजी तौर पर पेश होकर बार-बार माफी मांगने पर जोर देना अभूतपूर्व है। इस मामले में अंतिम फैसला अभी आना बाकी है लेकिन अब तक हुई सुनवाई से तमाम संबंधित पक्ष यानी दवा निर्माता, नियामक, सरकार और सबसे ऊपर, उपभोक्ता के लिए कई अहम सबक सीखने को हैं।
इस मामले के केंद्र में है दवा एवं जादुई उपचार (एतराज योग्य विज्ञापन) कानून 1954, दवा एवं प्रसाधन कानून-1940 और तत्पश्चात 1945 में बनाए नियम। 1954 में बना कानून कुछ दवाओं के विज्ञापन पर रोक लगाता है और कुछ स्थितियों में दवाओं का प्रचार कैसे किया जाए, इसको नियंत्रित करता है। जिन रोगों के इलाज को लेकर विज्ञापन देने पर रोक है उनमें कैंसर, मधुमेह, बच्चा न होना, एड्स, मोटापा, समय पूर्व बुढ़ापा, अंधता इत्यादि हैं। यह कानून विशेष तौर पर उन भ्रामक विज्ञापनों के लिए है जिनमें रोग को ठीक करने हेतु चमत्कारी इलाज या किसी दवा की प्रभावशीलता को लेकर झूठे अथवा बढ़ा-चढ़ाकर किए दावे हों। यह कानून केंद्र सरकार को इन प्रावधानों का उल्लंघन करने वालों के विरुद्ध कार्रवाई करने की शक्ति प्रदान करता है। भारत में दवाएं, प्रसाधन, मेडिकल उपकरण और अन्य संबंधित उत्पादों का उत्पादन, वितरण और बिक्री के लिए 1940 का कानून और इसके अंतर्गत बनाए गए नियम, मुख्य प्रावधान हैं।
पतंजलि का अपने अनेकानेक जड़ी-बूटी आधारित उत्पादों के बारे में दावा है कि इनसे रोग पूरी तरह ‘ठीक’ हो जाते हैं, इनमें डायबिटीज़, थायरॉयड समस्या और यहां तक कि कैंसर भी शामिल है। कोविड-19 महामारी के दौरान, इसने कोरोनिल नामक उत्पाद जारी किया और कोविड ‘ठीक’ करने का दावा किया। इस उत्पाद की लॉन्चिंग में तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन भी उपस्थित थे। जब इसकी प्रभावशीलता को लेकर सवाल उठे तो मार्किटिंग पैंतरे के तहत दावे को ‘उपचार’ से ‘प्रबंधन’ बताना शुरू कर दिया। अनेकानेक रोगों को ठीक करने का दावा करते अपने विज्ञापनों में पतंजलि संस्थान इलाज की आधुनिक मेडिकल व्यवस्था को निशाना बनाने लगा। यह कहकर कि उसके पास ठीक करने वाला कोई इलाज नहीं है। इसने न केवल स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को असहज किया बल्कि भारतीय मेडिकल संगठन (आईएमए) को भी। इन्होंने पतंजलि आयुर्वेद को दो दवा कानूनों के उल्लघंन करने के लिए अदालत में घसीटा, जहां पर पतंजलि को चेतावनी मिली। तथापि, अदालत की सरासर अवमानना करते हुए, इस संस्थान ने अपने भ्रामक विज्ञापन जारी रखे।
दवाओं, उपायों और स्वास्थ्य से संबंधित भ्रामक विज्ञापन एक बड़ी समस्या है और इस काम में पतंजलि आयुर्वेद ही एकमात्र नहीं है। भारत भर में अखबार और टेलीविज़न चैनल (एक विशेष वक्त पर) पर ऐसे विज्ञापनों और प्रायोजित सामग्री की भरमार है, जिनमें हरेक रोग के इलाज और उपचार को लेकर बड़े-बड़े दावे किए जाते हैं, फिर चाहे यह कब्ज हो या हृदय रोग। ऑनलाइन मंच जैसे कि यू-ट्यूब, इंस्टाग्राम और फेसबुक पर ऐसे चिकित्सकों, कंपनियों की बाढ़ आई हुई है और यह करना कानून का पूरी तरह उल्लंघन है। तथाकथित सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर्स भी संभावित खतरनाक स्वास्थ्य उत्पादों के प्रचार में शामिल हो गए हैं। हालांकि, बड़ी दवा कंपनियां भी सीधे ढंग से विज्ञापन देने से बचती हैं लेकिन उन्होंने भी चोर रास्ते निकाल रखे हैं, जिसमें पैसे देकर बनवाई-चलवाई खबरें, मेडिकल सम्मेलनों को प्रायोजित करना और चिकित्सकों को अपनी दवाएं लिखने की एवज में उपहार देना इत्यादि शामिल है। कुछ साल पहले, स्वयं भारतीय मेडिकल संघ पर कुछ उत्पादों की प्रभावशीलता और नैतिकता संबंधी पक्ष पर ध्यान दिए बिना उनका अनुमोदन करने का इल्जाम लगा था।
हम लोग इस स्थिति में इसलिए नहीं हैं कि हमारे कानून नाकाफी या नख-दंतहीन हैं। बल्कि इसलिए हैं क्योंकि सरकार द्वारा इनकी अनुपालना करवाने में ढीलढाल की जाती है। नियामक एवं नियंत्रण करने वाले संस्थानों ने मुंह फेरना तय कर रखा है। कानून भी पुराने पड़ चुके हैं और इनमें समय-समय पर सुधार नहीं किया गया। इनकी प्रासंगिकता को लेकर बनी अनेक कमेटियों ने इन्हें और अधिक कड़ा बनाने की जरूरत बताई है। बेशक बदलाव की प्रक्रिया में समय लगता है किंतु वर्तमान प्रावधानों का सर्वश्रेष्ठ उपयोग न करने के पीछे क्या वजह है। लेखक ने वर्ष 2008 में रामदेव द्वारा एचआईवी-एड्स को लेकर किए दावों पर सवाल उठाए थे। अम्बुमणि रामदॉस जो कि स्वयं प्रशिक्षित चिकित्सक हैं और तत्कालीन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री थे, ने रामदेव को इस बाबत मंत्रालय से नोटिस भी जारी करवाया था। लेकिन जल्द ही उन्होंने भी यू-टर्न लिया और गुरुग्राम में रामदेव द्वारा आयोजित योग शिविर में भाग लिया, वहां रामदेव ने फिर से एचआईवी-एड्स को ठीक करने के अपने दावे दोहराए। बृंदा करात, जो उस वक्त मार्क्सवादी पार्टी से सांसद थीं, उन्होंने भी उत्तराखंड सरकार से भ्रामक विज्ञापनों का मसला उठाया था, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई।
मौजूदा मामले में, केंद्र और राज्य सरकार नियामक एजेंसियाें ने अपनी कार्रवाई में ढिलाई बरती है और आपसी मिलीभगत से पतंजलि को अतिरंजित विज्ञापन देने की खुली छूट दिए रखी। केरल के स्वास्थ्य एवं आरटीए कार्यकर्ता डॉ. बाबू केवी ने पतंजलि के खिलाफ सिलसिलेवार शिकायतें दर्ज करवाई हैं, उन्होंने पहले उत्तराखंड सरकार के राज्य लाइसेंस प्राधिकरण को लिखा कि वह बताए गए विज्ञापनों को हटवाए, लेकिन न तो पतंजलि आयुर्वेद ने अपना रवैया बदला और न ही उस पर कोई कार्रवाई की गई जबकि विभाग के पास अमल करवाने की शक्ति है। इतना ही नहीं, बल्कि प्राधिकरण ने पतंजलि को चोर रास्ता भी मुहैया करवाया। पतंजलि आयुर्वेद को जारी किया नोटिस 1954 के कानून के तहत न होकर दवा एवं प्रसाधन कानून की एक धारा विशेष के अंतर्गत बनाया गया, जिसको लेकर मुंबई उच्च न्यायालय में मामला पहले से लंबित है। पतंजलि आयुर्वेद ने इस कानूनी केस का हवाला देकर आड़ ली और अपना काम जारी रखा। उक्त नियम 2018 में एक संशोधन के जरिए जोड़ा गया था। इसके तहत स्वास्थ्य संबंधी दावों पर विज्ञापन जारी करने से पहले संबंधित विभाग से अनुमति लेना जरूरी है।
खाद्य उत्पादों के विज्ञापनों में मशहूर हस्तियों द्वारा प्रचार एक अन्य मुख्य चुनौती है। इस मामले में भी, खाद्य सुरक्षा नियामक का रुख ढीला-ढाला है। न्यूट्रास्यूटिकल्स और फूड सप्लीमेंट वह समस्या क्षेत्र है, जिस पर फौरी ध्यान देने की जरूरत है। मीडिया परिदृश्य के बदले स्वरूप और विज्ञापन के सीधे एवं असीधे ढंग के मद्देनजर हमें दवाओं, खाद्य उत्पाद और सप्लीमेंट्स से संबंधित विपणन और विज्ञापनों पर बने तमाम कानून एवं नियमों की बृहद पुनर्समीक्षा करनी होगी। इसमें भारतीय चिकित्सा पद्धति भी शामिल है। भ्रामक विज्ञापन, दावों और संभावित खतरनाक उत्पादों के प्रचार में मशहूर हस्तियों द्वारा अनुमोदन पर बने कानून को और कड़ा करना भी जरूरी है। केंद्रीय एवं राज्यों के खाद्य एवं दवा नियामकों के कामकाज की समीक्षा होनी चाहिए। उन्हें यथेष्ट संसाधन मुहैया करवाए जाएं। पतंजलि आयुर्वेद मामला तमाम संबंधित विभागों के लिए आंख खोलने वाला है। आखिरकार, यह विषय सीधे तौर पर लोगों के स्वास्थ्य और भलाई से जुड़ा है।

लेखक विज्ञान संबंधी विषयों के जानकार हैं।

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