कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाना जरूरी
सुरेश सेठ
आज भारत तेजी से डिजिटल युग की ओर बढ़ रहा है। कृत्रिम मेधा और रोबोटिक्स के युग का आगमन हो रहा है। हमारे अंतरिक्ष खोज अभियानों में इसरो ने जो उपलब्धियां हासिल की हैं, उनमें महिला वैज्ञानिकों के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। चंद्रयान-3 के अभियान में इसरो के प्रमुख सोमनाथ ने अपनी महिला प्रमुखों की योग्यता और दक्षता की प्रशंसा की है। लेकिन दूसरी ओर, पुरुष वर्चस्ववादी इस देश में महिलाओं के प्रति आज भी वही पुराना दकियानूसी उपभोक्तावादी दृष्टिकोण कायम है। आज भी नारी स्वतंत्रता के युग में महिला अपहरण और दुष्कर्म की घटनाएं होती हैं। वहीं आधी आबादी, अपने समकक्ष पुरुषों के बराबर योग्य होने के बावजूद अपनी उचित जगह नहीं पा रही हैं।
‘मन की बात’ में इस बार मोदी ने भी स्पष्ट रूप से कहा है कि महिलाओं पर अत्याचार अक्षम्य पाप है; दोषियों और उनका समर्थन करने वालों को बख्शा नहीं जा सकता। चाहे इसका इशारा पश्चिम बंगाल की ओर हो या देश के अन्य हिस्सों में हो रही अमानवीय घटनाओं और निर्भया कांड जैसे बलात्कारों की ओर हो लेकिन इसके खिलाफ देश के प्रधानमंत्री से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक किसी भी तरह की हिचकिचाहट नहीं दिखायी गई है।
हाल ही में वित्तीय वर्ष 2047 तक महिला श्रम बल भागीदारी दर को वर्तमान 37 प्रतिशत से लगभग दोगुना कर 70 प्रतिशत करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। गैर-लाभकारी संस्था ‘द नज़ इंस्टीट्यूट’ ने एक श्रम बल भागीदारी रिपोर्ट जारी की है, जिसमें पिछले वर्षों में नारी स्वतंत्रता की घोषणाओं के बावजूद महिलाओं की श्रम बल भागीदारी की गणना की गई है। रिपोर्ट बताती है, भारतीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने और अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए देश के कार्यबल में 40 करोड़ अतिरिक्त महिलाओं की आवश्यकता है। यह आवश्यकता आसानी से पूरी की जा सकती है क्योंकि एक हालिया सर्वे के अनुसार देश में महिलाओं की संख्या पुरुषों के बराबर हो गई है। फिर भी, उनकी योग्यता और शिक्षा बढ़ने के बावजूद उन्हें उचित काम नहीं मिलता। वर्तमान में केवल 11 करोड़ महिलाएं देश के श्रम बल में शामिल हैं, और घर के काम करने वाली महिलाओं से लेकर खेतों तक नि:शुल्क काम करने वाली महिलाओं के लिए न तो उचित प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाती है, न ही उन्हें उचित वेतन देने के बारे में सोचा जाता है।
यदि महिलाओं को भी समान दृष्टिकोण से देखा जाए तो निश्चय ही उन्हें प्राप्त नए बल, उत्साह और परिश्रम से देश की उत्पादकता बढ़ेगी, लागत घटेगी, और निवेशकों के लिए लाभ वृद्धि की संभावना बनेगी, जो सकल घरेलू उत्पाद को बढ़ाते हुए देश को नई तरक्की की ओर ले जाएगी। फिर भी, रिपोर्टें बताती हैं कि हकीकत में ऐसा नहीं है। श्रम बल में उचित भागीदारी की क्षमता होने बावजूद भारत में महिलाओं को काम करने का समान सम्मान और प्रतिदान नहीं मिलता। देश को 2047 तक समृद्ध-संपन्न अर्थव्यवस्था बनाने का लक्ष्य पूरा करना हो तो इसके लिए महिलाओं को उचित सम्मान, वेतन और नौकरी की सुरक्षा देना अनिवार्य होगा।
वर्तमान में पुरुषों व महिलाओं के बीच वेतन की असमानता है। शीर्ष पद प्रायः पुरुषों के पास हैं। राजनीति से लेकर आधुनिक व्यवसायों तक में पुरुषों का वर्चस्व है, जबकि महिलाओं की योग्यता और परिश्रम किसी से कम नहीं हैं।
कोविड महामारी के बाद जो पुरुष और महिला श्रमिक काम से बाहर हुए, उनके पुनर्नियोजन के आंकड़े बताते हैं कि पुरुषों को फिर से काम मिल गया, लेकिन महिलाओं के लिए इस संदर्भ में विशेष प्रयास नहीं किए गए। नई रिपोर्टें बताती हैं कि ऐसी स्थितियों में महिलाओं की नौकरी खोने की संभावना सात गुना अधिक रहती है, और एक बार नौकरी खोने के बाद उन्हें दोबारा नौकरी मिलने की संभावना 11 गुना कम होती है। वर्ष 2019 के महामारी काल के दौरान, 2020 तक के एक साल में, काम करने वाली आधी महिलाएं कार्यबल से बाहर हो गईं, और उन्हें दोबारा नौकरियों में स्थापित करने की कोई विशेष कोशिश नहीं की गई।
महिलाएं अक्सर ऐसे क्षेत्रों में काम करती हैं जैसे कृषि और विनिर्माण, जहां पेशेवर प्रगति की संभावनाएं कम होती हैं और अकुशल भूमिकाएं बनी रहती हैं, जिससे उन्हें कम काम मिलता है। नए युग की नई व्यवस्था और प्रगति के सपनों को पूरा करने के लिए, महिलाओं को काम के संदर्भ में उनकी योग्यता के अनुसार उचित व्यवसाय देने की आवश्यकता है। जब तक महिलाओं को जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में बाहर आकर काम करने के लिए बढ़ावा नहीं दिया जाएगा, तब तक देश में वह प्रगति नहीं हो सकती जिसका सपना हम देख रहे हैं।
लेखक साहित्यकार हैं।