थिएटर की अहमियत महसूस कराना जरूरी
देश में रंगमंच कई तरह की चुनौतियों से जूझ रहा है। दर्शकों की कमी के साथ संसाधनों की भी किल्लत है। चंद राज्यों को छोड़ दें तो ज्यादातर में लोगों में टिकट न लेकर थिएटर देखने की सोच है। वहीं सरकारों से मदद भी नहीं मिलती है। समस्या प्रशिक्षित कलाकारों के इस माध्यम में टिकने की भी है। थिएटर से जुड़े मुद्दों पर एनएसडी के निदेशक प्रो. रमेश चंद्र गौड़ से रेणु खंतवाल की बातचीत।
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय एक ऐसी संस्था है जिसने देश को ओम शिवपुरी, ओम पुरी, नसीरुद्दीन शाह, राज बब्बर, अनु कपूर, पंकज कपूर, रघुवीर यादव, सतीश कौशिक, अनुपम खेर, नीना गुप्ता, तिग्मांशु धुलिया, पंकज त्रिपाठी, आशुतोष राणा व हिमानी शिवपुरी जैसे कई बड़े-बड़े अभिनेता-अभिनेत्री दिए हैं। तो वहीं रामगोपाल बजाज, देवेंद्रराज अंकुर, अमिताभ श्रीवास्तव, एमके रैना, रतन थियाम, वामन केंद्रे जैसे समर्पित रंगकर्मी भी दिए। इस साल संपन्न हुआ भारत रंग महोत्सव रंगमंच प्रेमियों में फिर उत्साह भर गया। रंगमंच की वर्तमान स्थिति और एनएसडी की भावी योजनाओं को लेकर इसके निदेशक प्रो. रमेश चंद्र गौड़ से बातचीत।
भारत रंग महोत्सव के दौरान आपको कई राज्यों में जाने का मौका मिला। रंगमंच को लेकर लोगों में कैसा उत्साह नज़र आया?
कुछ चीज़ें जो हर तरफ दिखाई दीं वो ये कि रंगमंच को प्यार करने वाले हर जगह हैं। लेकिन कुछ एरिया छोड़ दें तो टिकट लेकर थिएटर देखने वालों की अभी कमी है। दूसरी बात यह कि राज्य सरकारों से रंगमंच को सपोर्ट मिलती नज़र नहीं आती। सबको उम्मीद रहती है कि या तो एनएसडी करेगा या फिर संस्कृति मंत्रालय। इस सोच में बदलाव की जरूरत है। वहीं रंगमंच के लिए बेसिक संसाधनों की कमी पूरे भारत में है। ऑडिटोरियम या नाट्यशालाएं बहुत कम हैं। थिएटर की ट्रेनिंग की भी कमी है। एनएसडी से हर साल 26 स्टूडेंट निकलते हैं जोकि बहुत कम हैं। वहीं बाकी संस्थानों से जो बच्चे निकलते हैं उनकी ट्रेनिंग में सुधार की जरूरत है।
लोगों की आपसे क्या अपेक्षाएं रहीं?
जिन दस राज्यों में इस दौरान गया वहां लगभग सभी रंगकर्मियों की मांग थी कि जगह-जगह एनएसडी या एनएसडी सेंटर खुलने चाहिए। इसको लेकर बड़ी थिएटर पॉलिसी की जरूरत है। उसमें भी हमें एनएसडी सेंटर की नहीं बल्कि एनएसडी की जरूरत है। एक ज़ोन में एक एनएसडी तो होना ही चाहिए। उससे हर ज़ोन के बच्चे कवर हो जाएंगे। सबको दिल्ली आने की जरूरत नहीं होगी।
दिल्ली समेत बाकी राज्यों में थिएटर देखने के लिए ज्यादातर लोग पैसे खर्च नहीं करना चाहते। वहीं मुंबई में लोग महंगे टिकिट लेकर भी थिएटर देखते हैं। बड़े-बड़े कलाकार वहां थिएटर कर रहे हैं। अंतर की वजह?
सबसे बड़ी वजह है क्वालिटी थिएटर। मराठी रंगमंच की खासियत है कि वहां नवीनता बहुत है। लोग थिएटर में प्रयोग करते हैं। वहां बड़े से बड़ा थिएटर और फिल्म स्टार भी थिएटर करना चाहता है। जब लोग अपने फेवरेट फिल्म स्टार को थिएटर करते देखते हैं तो वे पैसे खर्च करने को तैयार हो जाते हैं। इसलिए वहां हाउसफुल रहते हैं। अभी हमने ‘अंधायुग’ नाटक किया जिसे एनएसडी के पूर्व निदेशक प्रो. रामगोपाल बजाज ने निर्देशित किया था। हमने टिकट रखी थीं, लोगों ने खरीदीं, शो हाउसफुल रहा। हमने अतिरिक्त शो भी किए। अच्छा नाटक खेला जाएगा तो वह सफल होगा।
रंगमंच के विकास के लिए जरूरी चीज़ें क्या हैं?
सबसे पहले तो थिएटर बनाने होंगे। ऑडिटोरियम के रेट ऐसे हों जो छोटे थिएटर ग्रुप्स भी अफोर्ड कर सकें। नए नाटकों की भी जरूरत है और थिएटर में प्रयोग की भी, नवीनता की चाहिये। अच्छी ट्रेनिंग की जरूरत है। राज्य सरकारें अपने-अपने राज्यों की कल्चर को थिएटर के माध्यम से प्रमोट करें। राज्यों में ऑडिटोरियम बनाने चाहिए। केंद्र से मदद की उम्मीद कि जब पैसा आएगा तब कोई कार्यक्रम होगा- यह थिएटर को पनपने नहीं दे रही। आयोजनों व थिएटर को प्रमोट करने में ज्यादा पैसा नहीं लगेगा।
क्या एनएसडी 26 स्टूडेंट्स की संख्या बढ़ा नहीं सकता?
इस महत्वपूर्ण सवाल को लेकर मैं भी मंथन कर रहा हूं। लेकिन अभी हमारे पास सीटें बढ़ाने के लिए पर्याप्त इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं है।
एनएसडी का काम है रंगकर्मी तैयार करना और रंगमंच विकास के लिए काम करना। लेकिन अब बच्चे एनएसडी को फिल्मों में जाने की सीढ़ी मात्र समझने लगे हैं?
हम एनएसडी को रंगकर्मी बनाने के लिए चला रहे हैं ताकि यहां से अच्छे थिएटर कलाकार निकलें और अपने-अपने राज्य में जाकर वे थिएटर का प्रचार-प्रसार करें लेकिन ऐसा हो नहीं रहा। फिल्म स्टार बनाना एनएसडी का काम नहीं है, उसके लिए फिल्म इंस्टीट्यूट हैं। अगर कोई यहां से कोर्स करके फिल्मों में नाम कमा रहा है तो उससे रंगमंच का तो कोई फायदा नहीं। दरअसल, एडमिशन के समय ही क्लीयर किया जाये कि यहां से पास करने के बाद शुरू के तीन-चार साल स्टूडेंट थिएटर को देगा।