असहमत होने से पहले गांधी को समझना जरूरी
विश्वनाथ सचदेव
वह भारतीय जनता पार्टी के प्रखर वक्ता भी हैं और नेता भी। पार्टी ने उन्हें राज्यसभा का सदस्य भी बनाया था। उस दिन एक टी.वी चैनल की बहस में उन्होंने इस बात पर आपत्ति प्रकट की थी कि महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता क्यों कहा जाता है! उनका तर्क था कि 'भारत माता' का पिता कोई कैसे हो सकता है? उन्हें इस बात पर भी ऐतराज़ था कि हमारे संविधान में 'राष्ट्रपिता' शब्द का उल्लेख न होने के बावजूद किसी को यह पदवी कोई कैसे दे सकता है? और जब भाजपा के यह प्रवक्ता टी.वी चैनल पर यह सब कह रहे थे तो सात समंदर पार अमेरिका में हमारे प्रधानमंत्री महात्मा गांधी की प्रतिमा पर फूल चढ़ा रहे थे, प्रतिमा के सामने शीश झुका रहे थे। इस दृश्य को देखने वालों ने यह भी देखा होगा कि राष्ट्रपिता के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए भारत के प्रधानमंत्री प्रतिमा को पीठ दिखा कर वहां से नहीं हटे थे- जैसे मंदिर में आराध्य की प्रतिमा को प्रणाम करके एक-एक कदम पीछे हटाते हुए हटा जाता है, ठीक वैसे ही प्रधानमंत्री राष्ट्रपिता की प्रतिमा से हटे थे।
जब-जब प्रधानमंत्री मोदी विदेश गये हैं, और जब-जब उन्हें अवसर मिला है उन्होंने इस बात को रेखांकित करना ज़रूरी समझा है कि भारत बुद्ध और गांधी का देश है। सच कहें तो विदेशों में गांधी भारत की पहचान का नाम है। सारी दुनिया इस पहचान को स्वीकारती-सराहती है। यह कोई संयोग नहीं है कि दुनिया के 141 देशों में महात्मा गांधी की प्रतिमाएं लगा कर, या फिर प्रमुख मार्गों को उनका नाम देकर भारत के राष्ट्रपिता के प्रति श्रद्धा व्यक्त की है! दुनिया यह भी जानती है कि गांधी जी के निधन पर आइंस्टाइन जैसे महान वैज्ञानिक-दार्शनिक ने कहा था, ‘आने वाली पीढ़ियां विश्वास नहीं करेंगी कि कभी इस धरती पर गांधी जैसा हाड-मांस का पुतला सचमुच में था।’
यह कतई ज़रूरी नहीं है कि महात्मा गांधी की हर बात को स्वीकारा जाये। असहमति हो सकती है उनकी किसी बात से, नेहरू, पटेल, सुभाष जैसे उनके शिष्य भी कई बातों पर गांधी से असहमत हुआ करते थे। वैचारिक असहमति अवमानना नहीं होती। गांधी तो स्वयं कई बार अपने आप से असहमत हुआ करते थे। सत्य के प्रयोग कहते थे वह अपनी कार्य-विधि को। वे कहा करते थे, जो मैं आज कह रहा हूं वह मेरे आज का सच है, हो सकता है कि कल मुझे कोई बेहतर बात समझ में आ जाये। गांधी की इस बात के अर्थ और महत्व को दुनिया ने समझा है, इसीलिए दुनिया भर में गांधी के विचारों को लेकर एक सम्मान का भाव है।
गांधी ने कभी नहीं कहा कि उन्होंने देश को आज़ाद कराया था। सच बात तो यह है कि उन्होंने देश को, और दुनिया को आज़ाद होने का मतलब समझाया था। आज़ादी की लड़ाई का एक तरीका सिखाया था उन्होंने हमें। और भी तरीके हो सकते हैं इस लड़ाई के, पर वे कहते थे, मेरा तरीका मुझे बेहतर लगता है। वे जीवन भर अपने तरीके पर चलते रहे। आज भी दुनिया उनके बताये तरीके को जानने-समझने का प्रयास करती दिखती है। इसलिए गांधी महान हैं। गांधी की महानता को देख-समझ कर ही नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने उन्हें राष्ट्रपिता कहा था। हां, महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता संबोधन सबसे पहले सुभाष चंद्र बोस ने ही दिया था। गांधी और सुभाष के वैचारिक मतभेद किसी से छिपे नहीं है, इसके बावजूद यदि सुभाष गांधीजी को राष्ट्रपिता समझते थे, तो यह इन दोनों महापुरुषों की महानता का ही परिचायक है। वैचारिक मतभेद का मतलब किसी को कमतर आंकना नहीं होता। और वैचारिक मतभेद व्यक्त करने का तरीका भी वह नहीं होता जो भाजपा के उस प्रवक्ता ने अपनाया था, जिसकी चर्चा मैंने प्रारंभ में की थी
यह दुर्भाग्य ही है कि आज देश में कुछ तत्व ऐसे हैं जो गांधी के प्रति अपनी असहमति को प्रकट करने के लिए गोडसे का सहारा लेते हैं। नाथूराम गोडसे ने गांधी की हत्या की थी, गांधी के विचारों की नहीं। सच कहें तो गांधी के विचारों की हत्या हो भी नहीं सकती। विचार पिस्तौल की गोली से नहीं मरते, विचार का मुकाबला विचार से ही हो सकता है, विचार से ही होना चाहिए। इस बात के मर्म को समझे बिना यह समझना संभव नहीं कि सुभाष चंद्र बोस ने गांधी को राष्ट्रपिता क्यों कहा था, और आज सारी दुनिया गांधी को जानने-समझने की आवश्यकता क्यों महसूस कर रही है।
गांधी ने जो कहा, जो किया उसे समझना हमारे आज की आवश्यकता ही नहीं, हमारे आने वाले कल की भी आवश्यकता है। इसीलिए स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को गांधी से परिचित कराना ज़रूरी है। इसीलिए, तब हैरानी होती है जब पता चलता है राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) ने इतिहास की पुस्तकों से गांधी-हत्या के प्रकरण को हटाने का निर्णय किया है। गांधी पर पर्दा डालकर गांधी के अस्तित्व को नहीं नकारा जा सकता। जैसे पिस्तौल की गोलियों से कोई गांधी नहीं मर सकता, वैसे ही गांधी को समझने की कोशिशों के महत्व को भी नहीं नकारा जा सकता। बच्चों को गांधी के विचारों से परिचित कराना ऐसी ही एक कोशिश है। गांधी से असहमत होने से पहले उन्हें समझना ज़रूरी है। दुर्भाग्य से, उन्हें समझने की कोशिशों के बजाय उन्हें समझने के रास्तों को बंद किया जा रहा है!
कुछ अर्सा पहले, शायद उत्तर प्रदेश में एक महिला नेता ने गांधी के पुतले पर गोलियां चलाकर अपनी असहमति प्रकट की थी। आज गोडसे की पूजा करके भी ऐसी ही कोशिश की जा रही है। गांधी को नकारने के लिए गांधी से बड़ी लकीर खींचने की आवश्यकता है। कोई गांधी राष्ट्रपिता बनाया नहीं जाता, अपने कर्म और विचारों से किसी को यह सम्मान मिलता है। गांधी की महत्ता और उन्हें समझने की आवश्यकता हमारे आज और आने वाले कल की ज़रूरत है। किसी एनसीईआरटी के पाठ्यक्रम से इसे पढ़ाया जाये या नहीं, इससे राष्ट्रपिता की महत्ता पर कोई असर नहीं पड़ता। सत्य और अहिंसा की जो मशाल गांधी ने जलायी थी, वह मनुष्य मात्र की चेतना को प्रभावित करने वाली है। आज दुनिया भर में गांधी को जानने-पहचानने के प्रयास हो रहे हैं। गांधी का सत्य और अहिंसा का मंत्र मनुष्यता के अस्तित्व की आवश्यकता है। आप उन्हें राष्ट्रपिता कहें या नहीं, उनके इस मंत्र को अनदेखा नहीं किया जा सकता, नहीं किया जाना चाहिए।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।