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मन के लड्डू मन में ही फूटें तो ही अच्छा

07:10 AM Sep 28, 2024 IST

सहीराम

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लड्डू अगर मन में ही फूटें तो ही भले लगते हैं जी। लेकिन इधर वे एक-दूसरे के सिर पर फूट रहे हैं, तोहमतों, लानतों और आरोपों की तरह। लड्डू खुशी है, खुशी का ही दूसरा नाम लड्डू है जी। खुशी में ही लड्डू मन में भी फूटते हैं और मंुह में भी घुलते हैं। लड्डू शगन भी होते हैं। शादी-ब्याह से लेकर हर उत्सव में लड्डू शगन का रूप धारण कर लेते हैं। लड्डू देवताओं का भोग भी होते हैं। कहते हैं कि गणेशजी को तो मोदक अत्यंत प्रिय हैं। लेकिन दूसरे देवी-देवताओं को भी लड्डू का भोग लगाया जाए तो वे भी प्रसन्न ही होते हैं। लड्डू प्रसाद भी होते हैं जो देवताओं के प्रसाद के रूप में बांटे जाते हैं। बेशक लड्डू छप्पन भोग का हिस्सा होते हैं, लेकिन वे गरीब की भी मिठाई होते हैं। बड़े-बड़े रिजॉर्टों, मैरिज पैलेसों और पांच सितारा होटलों में होने वाली शादियों में तो बेशक लड्डू न मिलते हों, लेकिन गरीब की शादी में मिठाई के रूप में लड्डू अवश्य ही मिल जाते हैं। वास्तव में लड्डू गरीब की मिठाई हैं। वह रसमलाई या राजभोग नहीं है, वह रसगुल्ला या संदेश नहीं है कि मिठाई की किसी नामी दुकान में ही मिलेगा, वह आपको सड़क किनारे के ढाबे पर भी सहज उपलब्ध हो सकता है। सो लड्डू शुद्ध भारतीय और आम भारतीय, गरीब भारतीय की मिठाई है।
लेकिन अब यही लड्डू विवाद में है। आम लड्डू विवाद में नहीं है, ढाबे पर उपलब्ध लड्डू, शादी-ब्याह में उपलब्ध लड्डू विवाद में नहीं है। बस प्रसाद का लड्डू विवाद में है। लेकिन गणेशजी को चढ़ाया जाने वाला या हर मंगलवार को हनुमानजी के प्रसाद के रूप में बांटा जाने वाला लड्डू विवाद में नहीं है। अभी तो तिरुपति के प्रसादवाला लड्डू ही विवाद में है। कहते हैं उसे बनाने में इस्तेमाल होने वाले घी में कई जानवरों की चर्बी पायी गयी है। यहां तक कि मछली का तेल भी पाया गया है। इन जानवरों का प्रयोग विभिन्न धर्मों की भावनाओं को भड़काने के लिए किए जाता रहा है। लेकिन अब उनकी चर्बी भी धर्म भ्रष्ट करने के काम आने लगी है। एक वक्त था जब उनकी चर्बी अठारह सौ सत्तावन की क्रांति की ज्वाला को भड़काने के काम आयी थी। अब उनकी चर्बी धर्मभ्रष्ट करने के काम आने लगी है। धर्म भ्रष्ट होने के बाद तो उपद्रव ही हो सकते हैं। यह उसकी स्वाभाविक परिणति है। समाज का टूटना और अंततः देश का टूटना। इसके बावजूद कई लोग अपने मन के लड्डू तोहमतों और आरोपों की तरह दूसरे के सिर पर फोड़ने पर आमादा हैं। लेकिन मन के लड्डू मन में ही फूटें तो ही भले लगते हैं। नहीं क्या?

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