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यह भी कोई बात हुई

10:41 AM Sep 03, 2023 IST

कविताएं

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अरुण आदित्य

यह भी कोई बात हुई
कि तुमने कहा रोटी
और रोटी सेंकने में जुट गया समूचा तंत्र

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कहा पानी
और झमाझम बरस पड़े बादल
कहा खुशबू
तो हवा दौड़ी चली आई
फूलों के गाल सहलाते हुए

कहा प्रेम
तो प्रेयसी प्रकट हो गई समक्ष
कहा फासिज्म
तो अट्टहास कर उठा फासिस्ट

यह भी कोई बात हुई
कि तुमने लिखा खून को खून
और लोग किसी की कमीज पर
ढूंढ़ने लगे उसके दाग

कानों में गूंजते हैं अक्सर ये शब्द
और मैं सोच में पड़ जाता हूं
कि यह हिदायत है या धमकी।

सपने में शहर

(चंडीगढ़ में ‌बिताए ‌दिनों की स्मृति में)
पत्थरों का बगीचा देखता है स्वप्न
कि वह सुख की झील बन जाए
झील का स्वप्न है कि नदी बन बहती रहे
नदी की लहरें सुरलहरियां बन जाना चाहती हैं
सुरलहरियां थिरकते पांवों में
तब्दील हो जाना चाहती हैं

यहां जो लाल है
वह हरा हो जाने की उम्मीद में है
जो हरा है, वह चटख पीला हो जाना चाहता है

फूल के मन में है तितली बन जाने का ख्वाब
तितली चाहती है कि वह हवा हो जाए
हवा सोचती रहती है कि वह क्या हो जाए?

इस शहर में जो है
वह जैसा है से कुछ और हो जाना चाहता है
पर क्या यह इसी शहर की बात है?

कुर्सी

कुर्सी काठ की नहीं
ठाठ की होती है
ठाठ की कुर्सी पर बैठकर
आदमी काठ का हो जाता है।

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