आपदा को आमंत्रण
ज्यादा समय नहीं हुआ जब हालिया मानसून में अतिवृष्टि के चलते शिमला के लोग भयाक्रांत थे। लगातार भूस्खलन व कई इमारतों के धराशायी होने के वीडियो सारी दुनिया में वायरल हो रहे थे। तब अनुमान था कि राज्य के सत्ताधीश पर्यावरण संरक्षण व भूक्षरण को रोकने की दिशा में कोई दूरगामी पहल करेंगे। बढ़ती आबादी व निर्माण के बोझ से दबे शिमला को राहत देने के लिये दूरदृष्टि वाले फैसले लेंगे। लेकिन जब हालिया बारिश से उपजी आपदा के जख्म अभी सूखे भी नहीं हैं राज्य सरकार ने शिमला की हरित पट्टियों में नये निर्माण को हरी झंडी दे दी है। शिमला में अतिवृष्टि से हुई अभूतपूर्व तबाही के लगभग दो महीने बाद ही आश्चर्यजनक निर्णय लेते हुए हिमाचल मंत्रिमंडल ने राज्य की राजधानी में 17 संवेदनशील हरित पट्टियों के कुछ हिस्सों में नये निर्माण की राह खोल दी है। उल्लेखनीय है कि शिमला के बेहतर भविष्य के लिये दिसंबर, 2000 में इन क्षेत्रों में भवन निर्माण गतिविधियों पर पूर्ण रूप से प्रतिबंध लगा दिया गया था। खास बात यह कि इन 17 हरित पट्टियों को ‘शिमला के फेफड़ों’ की संज्ञा दी जाती है क्योंकि इससे शहर की आबोहवा की गुणवत्ता का संवर्धन होता रहा है। दरअसल, 414.36 हेक्टेयर क्षेत्रफल में फैली इस बेल्ट में निर्माण कार्यों पर इसलिये प्रतिबंध लगाया गया था ताकि पर्यावरण मित्र देवदार के वृक्षों का संरक्षण किया जा सके। शिमला के लोग नहीं भूले हैं कि इस मानसून में हुई अप्रत्याशित बारिश में इस शहर ने जीवनदायी एक हजार के करीब देवदार के वृक्षों को खोया है। यही वजह है कि 23 वर्ष के अंतराल के बाद इस शहर की हरित पट्टियों में आवासीय निर्माण के उद्देश्यों से अनुमति देने के निर्णय की आलोचना पर्यावरणवादी कर रहे हैं। उनका मानना है कि राज्य के सत्ताधीशों को ध्यान रखना चाहिए कि शहर के पर्यावरण संतुलन में योगदान देने वाली हरित पट्टियों के मूल स्वरूप से छेड़छाड़ घातक साबित हो सकती है।
जाहिर है 23 साल पहले जनसंख्या व निर्माण का दबाव कम होने तथा पर्यावरणीय स्थिति अनुकूल होने के बावजूद शहर के फेफड़ों का काम करने वाली हरित पट्टी में यदि निर्माण कार्य पर रोक लगायी गई थी तो वजह तार्किक थी। जिनका विचार अब निर्माण की अनुमति देते वक्त भी किया जाना जरूरी था। इसी मकसद से नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने भी नये निर्माण पर रोक लगायी थी। लेकिन राजनीतिक-आर्थिक लाभ के लिये सत्ताधीशों ने पुराना फैसला बदल दिया। जाहिर है इस फैसले से पहले ही निर्माण के बोझ से चरमराई शिमला नगरी की चुनौतियों में वृद्धि ही होगी। हाल की बरसात में हुई तबाही के बाद भारत की अग्रणी वैज्ञानिक अनुसंधान संस्थाओं ने खुलासा किया था कि देश के कई पर्वतीय शहर बढ़ती आबादी का बोझ उठाने में सक्षम नहीं हैं। जिसके चलते उत्तराखंड में व्यापक भूस्खलन की आपदा जोशीमठ में नजर आई। इस तरह के आसन्न संकट वाले कई शहर हिमाचल में भी हैं। लेकिन राज्य मंत्रिमंडल ने इस चुनौती के बावजूद ग्रीन-बेल्ट क्षेत्र को निर्माण हेतु खोल दिया। जिसके लिये शिमला विकास योजना यानी एसडीपी में संशोधन करने का निर्णय लिया गया है। हालांकि, कहा जा रहा है कि उस क्षेत्र में निर्माण की अनुमति दी जाएगी जहां पेड़ नहीं होंगे। लेकिन पहले से इमारतों के भारी बोझ से दबे इलाकों में निर्माण से प्राचीन देवदार के जंगलों के लिये नया संकट पैदा हो सकता है। पर्यावरण कार्यकर्ता कह रहे हैं कि सरकार का यह निर्णय पर्यावरण विशेषज्ञों के उस दृष्टिकोण के विपरीत है जिसमें उन्होंने सूखते शंकुधारी वृक्षों को बचाने के लिये उपचारात्मक उपाय करने पर बल दिया था। दरअसल, शिमला विकास योजना में संशोधन को देश की शीर्ष अदालत से तीन मई को हरी झंडी मिलने के बाद राज्य की कैबिनेट ने 19 जून को इस फैसले को मंजूरी दे दी थी। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि सभी आपत्तियों का निराकरण होने तक एसडीपी में बदलाव को लागू नहीं किया जाना चाहिए। उल्लेखनीय है कि एनजीटी ने भी दिसंबर, 2017 में इन क्षेत्रों में नये निर्माण की अनुमति के प्रस्ताव पर रोक लगाई थी।