आस्था का आत्मीय पक्ष
यह प्रसंग स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी के समय दक्षणेश्वर काली मंदिर का है। जन्माष्टमी का उत्सव था। पुजारी दोपहर की पूजा के पश्चात, भगवान कृष्ण के विग्रह को शयन के लिए दूसरे कमरे में ले जा रहा था। अचानक पुजारी का पैर फिसला और वह मूर्ति सहित फर्श पर जा गिरे। मूर्ति की एक अंगुली टूट गई। विग्रह के खंडित होने से अमंगल का खतरा देख भक्त भयाक्रांत हो गए। मंदिर की संस्थापिका रानी रासमणि को जब यह सूचना मिली, तो वह डर के मारे सिहर उठी। रानी रासमणि की उस विग्रह में अटूट श्रद्धा थी। पंडितों का मत था कि खंडित विग्रह को गंगा जी मे विसर्जित कर नई मूर्ति की स्थापना कर देनी चाहिए। रानी मां की श्रद्धा राम कृष्ण परमहंस में बहुत थी। जब समस्या के समाधान के लिए परमहंस जी से पूछा गया, तो उन्होंने कहा, ‘परिवार में किसी की अंगुली टूट जाये तो उसको जोड़ते हैं न कि उसे विसर्जित कर देते हैं। उन्होंने बड़ी सफाई से उंगली को जोड़ दिया। भावना सर्वोपरि होती है, विधि-विधान नहीं। अब रानी मां का धर्म संकट समाप्त हो चुका था।
प्रस्तुति : डॉ. मधुसूदन शर्मा