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वंदे भारत रेलगाड़ी बनने की अंदरूनी कसक

12:36 PM Jun 19, 2023 IST

राजेश रामचंद्रन

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वंदे भारत रेलगाड़ियों को लेकर लोगों में उत्सुकता इतनी ज्यादा है कि ओडिशा के बालासोर रेल हादसे के बावजूद यह बरकरार है। जिस त्रासदी ने 289 यात्रियों की जिंदगी लील ली और जो भारतीय रेल इतिहास की सबसे भीषण दुर्घटनाओं में से एक है, क्या इसके पीछे कोई तोड़-फोड़ है, जैसा कि रेलवे सुरक्षा आयुक्त की आरंभिक जांच रिपोर्ट आने से पहले ही तफ्तीश में सीबीआई की घोषणा करने से लग रहा है। बहरहाल, वंदे भारत का प्रचार इतना ज्यादा है कि इसका सकारात्मक पहलू भारत में रेल यात्रा से जुड़ी असुरक्षा और अप्रत्याशिता रूपी दुश्वारियों पर भारी पड़ रहा है। वास्तव में, वंदे भारत निर्माण भारतीय रेल की एकमात्र सफलता गाथा है तभी तो रेलवे विभाग इतना आत्ममुग्ध है। क्योंकि इससे पहले जो रेल डिब्बे या तकनीकें प्रयुक्त हुईं, अधिकांशतः आयातित थे। वंदे भारत रेलगाड़ी बनाना सच में ‘देसी जीत’ है।

कोई हैरानी नहीं कि हर नई वंदे भारत रेल को प्रधानमंत्री खुद झंडी दिखाते हैं और आगामी 26 जून को पांच ऐसी गाड़ियों का उद्घाटन करेंगे। लेकिन 26 का यह आंकड़ा वंदे भारत बनाने वाली टीम के लिए बहुत अहमियत रखता है या यूं कहें कि कई दृष्टि से चिंतित करने वाला है, जैसा कि मुझे एक सेवानिवृत्त मित्र से बातचीत में पता चला, जिनसे मेरा परिचय उस वक्त से है, जब मैं लगभग 20 साल पहले बतौर संवाददाता रेलवे विभाग देखता था। ‘वंदे भारत’ परियोजना को पहले ‘ट्रेन-18’ नाम दिया गया था। विद्रूपता यह कि रेलवे के सतर्कता विभाग ने इस परियोजना की मूल टीम के एक-दो नहीं, 26 अधिकारियों पर अभियोग पत्र दाखिल किए। इनमें महाप्रबंधक सुधांशु मणि (जो इंटीग्रल कोच फैक्टरी चेन्नई के मुखिया भी थे), से लेकर कनिष्ठ अधिकारी तक, जो कोई डिजाइन, प्रारूप, इंजीनियरिंग और डिलीवरी विभाग से जुड़ा था, पर वित्तीय गड़बड़ी के आरोप जड़ दिए गए।

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इसकी शुरुआत सुधांशु मणि से हुई, जब उन्होंने अगस्त, 2016 में इंटिग्रल कोच फैक्टरी का बतौर महाप्रबंधक काम संभाला, इससे पहले वे जर्मनी में रेलवे की ओर से सौंपा गया कार्य पूरा करके लौटे थे। ऐसा शख्स, जो सबसे किफायती सेमी-हाई स्पीड रेलगाड़ी जल्द से जल्द बनाने की आकांक्षा रखता हो, इस काम के लिए उन्होंने चुनींदा टीम तैयार की। चूंकि वंदे भारत बनाने की समय सीमा 2018 रखी गई, इसलिए परियोजना को नाम दिया ‘ट्रेन-18’। दिसम्बर, 2018 में भारतीय इंजीनियरों ने कर दिखाया और यह उपलब्धि भारतीय रेल इतिहास में उपलब्धि है। लेकिन सितम यह कि 15 फरवरी, 2019 के दिन, जब प्रथम वंदे भारत को झंडी दिखाने का समारोह हो रहा था तब तक सुधांशु मणि सेवामुक्त हो चुके थे और मूल निर्माण टीम का एक भी सदस्य इस अवसर पर मौजूद नहीं था। खैर, सरकार के घर काम ऐसे ही होते हैं और अक्सर श्रेय चुरा लिए जाते हैं या किसी नकारा पदाधिकारी की झोली में अनचाहे गिर जाते हैं। वंदे भारत बनाने वाली मूल टीम को तब ज्यादा खुशी होती, यदि रेलवे बोर्ड इनकी काबिलियत पर भरोसा रखते हुए, जो धन विदेशी सेमी-हाई स्पीड डिब्बों को खरीदने में लगता, उसका अंश जारी कर देता और यह लोग उतने में बना डालते।

केवल दो सालों में परियोजना पूरी करने की जल्दी और एक विश्वस्तरीय स्वदेशी रेलगाड़ी बनाने का ध्येय प्राप्त करने में जाहिर है टीम को कुछ गैर-रिवायती तौर-तरीके अपनाने ही पड़ने थेndash;वर्ना सफलता कैसे मिलती? लेकिन शायद ही कभी उन्हें अहसास हुआ होगा कि इस परियोजना की सफलता उनमें कुछ की नौकरी खा जाएगी। जहां सुधांशु मणि और उनकी टीम के बनाए रेल डिब्बे की लागत 6 करोड़ रुपये पड़ती है वहीं एक यूरोपियन रेल डिब्बे की कीमत 10-12 करोड़ रुपये के बीच होती है। प्रथम वंदे भारत को रवाना करने के बाद रेलवे बोर्ड अध्यक्ष और सतर्कता विभागाध्यक्ष ने दुर्भावनापूर्ण जांच शुरू कर दी, परिणामस्वरूप परियोजना में जिम्मेवारी उठाकर भूमिका निभाने वाले अधिकारियों पर अभियोगपत्र दाखिल हुआ। उनका अपराध इतनाभर था कि वे एक सफल टीम का हिस्सा थे। जाहिर है, एक अभियोगपत्रयाफ्ता व्यक्ति को आगे पदेन तरक्की नहीं दी जाती। इसलिए उन्हें चुप रहकर यह सहना पड़ा।

इसी बीच, परिदृश्य में सीआरआरसी कॉर्पोरेशन नामक चीनी कंपनी की प्रवृष्टि होने से एक उप-साजिश चल निकली। रेलवे बोर्ड में सदा से ऐसे दलालों और मध्यस्थतों का आना-जाना रहा है जो देश-विदेश के विभिन्न उत्पादकों या सेवा-प्रदाताओं के हित साधते हैं। कुछ दशक पहले तक तो मंज़र यही था, हो सकता है अब बदलाव आया हो। बहरहाल, फैसला लेने की हैसियत रखने वाले कुछ लोगों के लिए चीनी कंपनी की पेशकश इतनी लुभायमान थी कि उसे नज़रअंदाज़ करना मुश्किल हो गया। हो सकता है मणि और उनकी टीम के विरुद्ध सतर्कता मामला इसलिए खोला गया हो ताकि चीनी कंपनी के टेंडर को तरजीह मिल पाए। बेशक ऐसा करके वे कुछ अधिकारियों को एक किनारे लगाने के अपने प्रयासों में सफल रहे और सीआरआरसी का टेंडर तक पास हो चुका, लेकिन 44 सेमी हाईस्पीड रेलगाड़ियां खरीदने का मंसूबा तब खटाई में पड़ गया, जब 2020 में चीन ने लद्दाख में घुसपैठ कर दी। रेलवे बिरादरी में कुछ लोग हैं जिनका मानना है कि गलवान में हुआ टकराव वंदे भारत रेल निर्माण में दैवीय योग बनकर आया।

यदि चीन ने तीन साल पहले सीमा पारीय घुसपैठ का दुस्साहस न किया होता और गलवान में धोखा नहीं दिया होता तो ‘ट्रेन-18’ परियोजना ‘असफलता’ का कलंक कुछ अफसरों के माथे मढ़कर बंद कर दी जाती। वास्तव में, यहां तक कहा जा रहा है कि सेमी हाई स्पीड ट्रेन टेंडर का एक हिस्सा यह भी था कि चीनियों की उपस्थिति उस महत्वपूर्ण रेलवे उत्पादन इकाई में हो जाती जहां पर भारतीय सेना के लिए अति महत्वपूर्ण रक्षा उपकरण तैयार किए जाते हैं। और जिन अधिकारियों ने इस चीनी दखलअंदाज़ी का विरोध किया, उन्हें अपने राष्ट्रप्रेम की एवज में बहुत भुगतना पड़ा। चीनी कंपनी का टेंडर छिटक जाने के बाद, इंटीग्रल कोच फैक्टरी में वंदे भारत के निर्माण कार्य ने गति पकड़ ली और रेलगाड़ियां बनकर निकलने लगीं, जिसके लिए वाहवाही रेलवे बोर्ड और मंत्रालय लूटने लगा। लेकिन मूल निर्माण टीम को अभी भी ऊल-जलूल प्रश्नोत्तरी का सामना करना था, जिसका मकसद सच जानने की बजाय केवल उन्हें तंग और बेइज्जत करना था। अतंतः, केंद्रीय सतर्कता आयोग ने इन मामलों को रद्द करते हुए मूल टीम के सभी 26 लोगों को बरी कर दिया।

इस टीम के एक भी सदस्य को न तो रेलवे बोर्ड ने और न ही ‘ट्रेन-18’ को झंडी दिखाने में आगे रहने वाले प्रधानमंत्री ने सम्मानित किया। अपने ही लोगों की पुरजोर कोशिशों के बावजूद सजा से बच जाना और केंद्रीय सतर्कता आयोग से बरी होना ही इन लोगों का एकमात्र पदक है। परंतु इस अनावश्यक विवाद में पड़कर, कुछ लोग उन पदों पर तरक्की पाने का मौका गंवा चुके हैं, जहां पर होना उनका जायज हक है। यह बलिदान कोई छोटा नहीं है। ‘ट्रेन-18’ और ‘टीम-26’ की पूरी कहानी सुनने के बाद किसी का वंदे भारत पर चढ़ने का उत्साह जाता रहेगा, क्योंकि तब-तब रेल मंत्रालय की अफसरशाही की दुष्टता याद हो आएगी। यदि इसी तरह जिम्मेवारी उठाकर पहल करके कर दिखाने वालों को सजा और चापलूसों को इनाम देना जारी रहा, जो कि भारतीय प्रबंधन की ‘महान तरकीब’ है, तो आगे भी बालासोर सरीखी दुर्घटनाएं और अन्य रेलवे त्रासदियां होती रहेंगी।

लेखक प्रधान संपादक हैं।

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