रवांई क्षेत्र की रोचक कथाएं
रतन चंद ‘रत्नेश’
साहित्य की प्राचीनतम विधा लोककथा का आधार जनश्रुतियां हुआ करती हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी कतिपय परिवर्तन और परिवर्धन के साथ कमोबेश चलती रहती हैं। अपितु कालांतर में वाचिक परंपरा का क्रमशः कमतर होते चले जाने के कारण उन्हें लिखित रूप में संजोना एक अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य है।
जाने-माने लेखक महाबीर रवांल्टा ‘चल मेरी ढोलक ठुमक ठुम’ में अपने उत्तरकाशी के रवांई क्षेत्र की लोककथाओं का संरक्षित करने का ऐसा ही सफल प्रयास किया है। इसमें छियालिस कथाएं समाहित हैं जो उस अंचल की तात्कालिक संस्कृति और सामाजिक सरोकार से परिचय कराती हैं। इनमें कुछ लोककथाएं ऐसी भी हैं जो तनिक बदलाव के साथ संलग्न हिमाचल प्रदेश में भी प्रचलित हैं। इनमें रेणुका व नेनुका, महासू, विनाश और जेठी जातर विशेष ध्यान खींचती हैं। संगृहीत लोककथाएं इस बात का भी प्रमाण देती हैं कि परंपराओं का निर्वाह बाकायदा आज तलक कई स्थानों पर हो रहा है, जैसे कि गांव की खुशहाली के लिए अदृश्य शक्ति इलक्वा की मान्यता, गजू-मलारी का प्रेम-प्रसंग, साहसी सुहागी की चर्चा इत्यादि। ओडारू व जखंडी का पुजेली गांव में मंदिर का होना ‘दंड’ में उद्घाटित हुआ है। इसी तरह रूपिन और सुपिन के संगम पर स्थित नैटवाड़ में पोखू का मंदिर है जो न्याय के देवता के रूप में जाना जाता है और ‘श्रीपुरी ढोल’ में जिस ढोल का जिक्र आया है, वह आज भी हनोल में महासू देवता के मंदिर में रखा हुआ है।
स्थान-विशेष पर स्थानीय बोली में प्रचलित शब्दों के साथ उनके अर्थ कथाओं में प्रवाह बनाए रखती हैं। पुस्तक पठनीय और संग्रहणीय है।
पुस्तक : चल मेरी ढोलक ठुमक ठुम लेखक : महाबीर रवांल्टा प्रकाशक : समय साक्ष्य, देहरादून पृष्ठ : 128 मूल्य : रु. 165.