प्रेरणा से परिवर्तन
एक बार अष्टछाप के संत कवि कृष्णदास किसी कार्यवश आगरा जा रहे थे कि उन्हें किसी युवती का कोमल स्वर सुनाई दिया। रसिक कवि एकग्रता खो बैठे और मधुरगान की ओर आकृष्ट हो चल पड़े। वास्तव में वह युवती एक वारांगना थी। उसका गाना सुनने पर उन्होंने निश्चय किया कि इसे श्रीनाथजी के पदगान और नृत्यसेवा में समर्पित कराना चाहिए। वह वारांगना एक साधु पुरुष को आया देख आश्चर्यचकित हो गई थी। कृष्णदास बोले, ‘यदि तुम श्रीनाथजी के सामने नृत्य-गान करो तो तुम्हें मुंह-मांगा धन मिलेगा।’ वारांगना ने यह प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार कर लिया। स्नान कर वीणा उठा वह मंदिर गई। वीणा बज उठी, मृदंग गमक उठे और झांझ की खन-खन ध्वनि में उसके पायल की ध्वनि झंकृत हो उठी। उसके कंठ से पंक्तियां निकल पड़ींmdash; मेरो मन गिरिधर छवि पे अटक्यौ। सजल स्याम घन बिरन लीन है, फिर चित अन तन भटक्यो। वारांगना ने यह व्यवसाय हमेशा के लिए त्याग कर अपने को भगवद्भजन में लगा लिया। प्रस्तुति : अंजु अग्निहोत्री