सृजन में चिंतन-मनन की प्रेरणा
सुदर्शन गासो
उर्मिल मोंगा हिन्दी साहित्य-जगत में एक उभरती हुई कवयित्री का नाम है लेकिन अपने नयेपन के साथ इस लेखिका ने जिस संजीदगी से लिखने के कारण और समाज के तमाम प्रासंगिक मुद्दों को उभारने के कारण हमारा ध्यान अपनी कविता की ओर आकर्षित किया है वे हमें कविता व समाज के साथ तो जोड़ता ही है साथ ही हमें सार्थक कविता/साहित्य के बारे में चिन्तन-मनन करने के लिए भी प्रेरित करता है।
नि:संदेह, उर्मिल मोंगा की सीधी व साफ धारा वाली जन-चेतना से लबरेज़ कविताएं, हमारे समाज के सामने की चुनौतियों और जन-मानस की आत्मा के साथ साक्षात्कार करवाती हैं। उसकी कविता जीवन की कठिन परिस्थितियों में आशा का पहलू पकड़े रहती है :- जूझता रहा पेड़ तूफानों से/ आखिर एक दिन हार गया/ धराशायी हो गया/ फिर भी आश्वस्त रहा/ फैल गये हज़ारों बीज/ दूर-दूर तक/ उगेंगे अनेक बचे पेड़।
सांप्रदायिक सौहार्द की जरूरत को महसूस करते हुए कवयित्री स्पष्ट शब्दों में धर्म के नाम पर हो रही भावनात्मक लूट की ओर भी इशारा करती है। इस दौरान उस के तेवर भी तीखे और काफी सख्त दिखाई देते हैं :- धर्म के नाम पर/ अस्तबलों में पलते घोड़े/ बेलगाम बछेरे/ फैल जाते टिड्डी दल की तरह/ चर जाते/ भाई चारा,/ सौहार्द की वर्षों में/ उगाई फसलें रातों रात!
कवयित्री स्त्री को अपने पैरों पर खड़ी देखना चाहती है। वह चाहती है कि स्त्री समाज में फैले दंभ को पहचाने और संघर्ष करे। ऐसा करते समय वे ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को भी सामने रख कर चलती है।
कवयित्री जीवन में आज़ादी व संघर्ष के महत्व को समझती है और इन्हीं जीवन-मूल्यों को अपनी कविताओं में स्थापित करने का प्रयास करती है :- मुझे बस आज़ादी चाहिए/ मोक्ष में जीवन कहां?
इस तरह वह अपनी कविताओं को दार्शनिक रंग में भी रंग लेती है।
पुस्तक : लड़ना है न्याय युद्ध कवयित्री : उर्मिल मोंगा प्रकाशक : सम्भव प्रकाशन, कैथल पृष्ठ : 117 मूल्य : रु. 120.