अंतर्मन की चेतना
एक व्यक्ति संत के पास गया और बोला, ‘महाराज, मैं बहुत गरीब हूं, कुछ दो।’ संत ने कहा, ‘मैं अकिंचन हूं, तुम्हें क्या दे सकता हूं?’ संत ने बहुत समझाया, लेकिन वह नहीं माना। तब संत ने कहा, ‘जाओ, नदी के किनारे एक पारस का टुकड़ा है, उसे ले आओ। मैंने उसे फेंका है। उस टुकड़े से लोहा सोना बनता है।’ व्यक्ति नदी के किनारे से पारस का टुकड़ा उठा लाया। फिर संत को नमस्कार कर घर की ओर चल दिया। वह अभी कुछ ही कदम दूर गया होगा कि मन में विचार उठा। संत के पास वापस लौटकर बोला, ‘महाराज, यह लो अपना पारस, मुझे नहीं चाहिए।’ संत ने पूछा, ‘क्यों क्या बात हो गई?’ व्यक्ति बोला, ‘महाराज, मुझे वह चाहिए, जिसे पाकर आपने पारस को ठुकराया है। वह पारस से भी कीमती है, वही मुझे दीजिए।’ जब व्यक्ति में अंतर्मन की चेतना जग जाती है, तब वह कामनापूर्ति के पीछे नहीं दौड़ता, वह इच्छापूर्ति का प्रयत्न नहीं करता। प्रस्तुति : अक्षिता तिवारी