लोकतंत्र को धन बल से बचाने की पहल
जगदीप एस. छोकर
पंद्रह फरवरी, 2024 का दिन भारत के लोकतंत्र के इतिहास में एक अहम दिन के रूप में याद रखा जाएगा। इस दिन सर्वोच्च न्यायालय ने इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम (ईबीएस) को असंवैधानिक करार दे दिया। अदालत ने अपने फैसले में कहा कि भविष्य में बैंक इलेक्टोरल बॉन्ड जारी न करे। यह फैसला अभूतपूर्व है क्योंकि यह उस स्कीम को बंद करता है जिसके तहत विभिन्न राजनीतिक दलों को मार्च, 2018 से 2024 के बीच 16,518 करोड़ रुपया चंदे के रूप में मिला, इसका बड़ा हिस्सा केंद्र में सत्तासीन दल को गया है और शायद अपवादस्वरूप सत्तारूढ़ प्रशासन के अलावा किसी को नहीं पता कि किसने किसको कितना चंदा दिया।
ईबीएस स्कीम की घोषणा फरवरी, 2017 में तत्कालीन वित्त मंत्री द्वारा अपने बजटीय भाषण के दौरान की गई थी। इसको शुरू करने के पीछे वजह बताई कि चुनाव चंदा प्राप्ति में पारदर्शिता बढ़ेगी। लेकिन जब स्कीम का विवरण पता चला तो यह साफ था कि ईबीएस से व्यवस्था में रही-सही पारदर्शिता भी जाती रहेगी। अदालत के फैसले ने स्पष्ट किया है कि अदृश्य या चुनींदा या आंशिक पारदर्शी या फिर चुनींदा आंशिक अपारदर्शिता वाली चंदा व्यवस्था इस देश में कतई अस्वीकार्य है, क्योंकि यह लोकतंत्र की नैतिकता के विरुद्ध है। न्यायालय ने चुनाव प्रक्रिया में भाग लेने वाले सबको समान अवसर मिलने के सिद्धांत को विशेष रूप से ज़हन में रखा है।
अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे का स्रोत जानने का देश के नागरिकों को पूरा हक है। यह सूचना के अधिकार को मजबूती प्रदान करता है, जिसकी फौरी जरूरत है। सालों से सरकारें और प्रशासन इस महत्वपूर्ण नागरिक हित केंद्रित कानून को हल्के में लेते आए हैं, यहां तक कि न्यायपालिका भी इसको लेकर सुस्त रही। यह फैसला इस कानून को कानूनन वैधता और सम्बल प्रदान करता है, जिसकी सख्त जरूरत थी।
देखा जाए तो न्यायालय ने जिस सबसे अहम मुद्दे को छेड़ा है वह है राजनीतिक दलों को कॉर्पोरेट्स द्वारा दिया जाना वाला चंदा, यह उपाय ईबीएस का नींव का पत्थर है या इस व्यवस्था को बनाने के पीछे का मुख्य मनोरथ। इस स्कीम के अंश के तौर पर, कंपनी एक्ट में संशोधन करते हुए उस प्रावधान को हटा दिया गया, जिसमें पहले नियम था कि कोई कंपनी अपने पिछले तीन सालों के औसत मुनाफे का केवल 7.5 प्रतिशत ही राजनीतिक चंदे के रूप में दे सकती है। इस संशोधन ने ऐसी स्थिति बना दी कि कोई कंपनी जितना चाहे उतना चंदा राजनीतिक दलों को दे सकती है, भले ही वह खुद घाटे में क्यों न चल रही हो।
इसी के समांतर विदेशी अंशदान नियंत्रण कानून (एसीआरए) में भी संशोधन किया गया जिसके जरिए विदेशी कंपनियों को भारत में अपनी उप-इकाइयां बनाना संभव हुआ और इनके माध्यम से राजनीतिक दलों को चंदा देना आसान बना। इसका एक संभावित चिंताजनक पहलू यह है कि इस ढंग का उपयोग करके विदेशी कंपनियां भारत में राजनीतिक दलों को विशाल चंदा देकर असल में मनमाफिक साध सकती हैं। संभवतः न्यायालय ने इस खतरे को भांप लिया और कहा कि कॉर्पोरेट्स पर अहद 7.5 फीसदी वाली सीमा को हटाना असंवैधानिक था।
अदालत ने भारतीय स्टेट बैंक को कहा है कि वह खरीदे गए प्रत्येक इलेक्टोरल बॉन्ड्स की विस्तृत जानकारी चुनाव आयोग को सौंपे। इस विवरण में हरेक इलेक्टोरल बॉन्ड की खरीद तारीख, खरीदने वाले का नाम और किस मूल्य का है, यह बताना पड़ेगा। इलेक्टोरल बॉन्ड के रूप में किस राजनीतिक दल को कितना चंदा मिला, इसका विवरण भी संलग्न किया चाहिए। न्यायालय ने भारतीय स्टेट बैंक को कहा है कि वह राजनीतिक दलों द्वारा भुनाए प्रत्येक इलेक्टोरल बॉन्ड का विवरण जमा करवाए, जिसमें भुनाने की तिथि और उसका मूल्य शामिल हो। शीर्ष न्यायालय ने 6 मार्च तक यह तमाम सूचना चुनाव आयोग को सौंपने का निर्देश दिया है। आगे यह भी कहा है कि भारतीय स्टेट बैंक से जानकारी मिलने के एक हफ्ते के अंदर यानी 13 मार्च तक, चुनाव आयोग अपनी वेबसाइट पर प्रकाशित करे।
यह फैसला पारदर्शिता के हितार्थ बहुत बड़ा प्रोत्साहन है क्योंकि पिछले छह सालों से नागरिकों की नज़रों से जो कुछ छिपाकर रखा गया था, वह अब देखने को मिलेगा। इसमें कॉर्पोरेट-राजनीतिक गठजोड़ और कई सालों से इनके बीच की संभावित सौदेबाज़ी की सारी न सही, कम-से-कम कुछ तो जानकारी उजागर होगी।
अदालती फैसले के बाद जल्द ही कुछ लोगों द्वारा यह आशंका जताई गई कि न्यायालय के निर्देश पर खुलासा करना सच में फलीभूत नहीं हो पाएगा और इससे बच निकलने का कोई रास्ता ढूंढ़ लेंगे। यह आशंकाएं एकदम निर्मूल नहीं हैं, इसका पता एक मुख्य अखबार में छपी खबर से चलता है। कदाचित यह संकेत है कि फैसले पर क्रियान्वयन इतना आसान भी नहीं है। यहीं पर लोकतंत्र और पारदर्शिता की आवश्यकता में रुचि रखने वालों को भूमिका निभानी होगी।
अदालत ने सुस्पष्ट और बृहद फैसला देकर अपना काम श्लाघापूर्वक कर दिखाया है। इसके क्रियान्वयन की जिम्मेवारी अब संस्थानों पर है, जिसमें एक है वैधानिक (भारतीय स्टेट बैंक) तो दूसरा है संवैधानिक (राष्ट्रीय चुनाव आयोग), जिनके लिए अदालती निर्देश आया है। अब सारा दारोमदार उनके उपर है।
लेखक एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स नामक संस्था के संस्थापक सदस्य हैं।