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क्षेत्रीय मुद्दों के समाधान को हो संवाद की पहल

04:00 AM Mar 20, 2025 IST
क्षेत्रीय मुद्दों के समाधान को हो संवाद की पहल
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दक्षिण भारत के कई मुद्दे आजकल खबरों में हैं। विवाद की हालिया वजह 2026 में अपेक्षित लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन है। दरअसल, दक्षिणी राज्यों को डर है कि परिसीमन के बाद देश की संसद में उनका प्रतिनिधित्व व प्रभुत्व कम हो जायेगा। दक्षिण समेत देश के सभी राज्यों की जायज मांगों को संबोधित के लिए केंद्र सरकार के आला प्रतिनिधियों को राज्यों से खुलकर बातचीत करने की जरूरत है।

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Gurbachan Jagat-Trustee

गुरबचन जगत

इस सदी के पहले डेढ़ दशक के दौरान मुझे दक्षिण और उत्तर-पूर्वी भारत का व्यापक दौरा करने का अवसर मिला था। इससे पहले,जम्मू-कश्मीर में उथल-पुथल भरे कुछ वर्षों के दौरान वहां रहने का भी मौका मिला था और बेशक पंजाब तो मेरा गृह राज्य है ही और यही वह सूबा है जहां पर 1966 में बतौर आईपीएस मेरी सेवाएं शुरू हुई थीं। यह इस महान राष्ट्र में मेरे दायरे की विहंगम दृश्यावली है और अकसर मैं इसकी विशालता पर विस्मित हुआ करता हूं। लगभग पांच दशकों की सरकारी सेवा के दौरान देश के विभिन्न हिस्सों में दौरा-निरीक्षण, लोगों से हुआ मेल-जोल ‘विविधता में एकता’ के पुराने सिद्धांत को समृद्ध परिप्रेक्ष्य प्रदान करता है।
हमारे पूर्वजों की बुद्धिमत्ता और संविधान के अनुच्छेद 15 में अंतर्निहित सिद्धांत की बदौलत हमारे राष्ट्र को मिले संतुलन का मैं गवाह हूं। पुलिस में अपने कार्यकाल के दौरान मैंने यह उस तबाही को भी देखा है जो निहित स्वार्थों द्वारा पुरानी विभाजन रेखाओं को उभारने से बन सकती है। इन दिनों राष्ट्रीय मीडिया पर दक्षिण भारत की हलचल की खबरें खूब छाई हुई हैं और राजनीतिक, प्रशासनिक और सामाजिक गलियारों में भी यह गर्मागर्म बहस का विषय है। इस विवाद की हालिया वजह 2026 में होने वाली नई जनगणना के आधार पर लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों का अपेक्षित परिसीमन है। अन्य कारकों में समान नागरिक संहिता, नई शिक्षा नीति का क्रियान्वयन, हिंदी थोपने की आशंका, संघीय ढांचे को कथित रूप से कमजोर करना और केंद्र सरकार से राज्यों को अपर्याप्त धन का प्रवाह है।
दक्षिणी राज्यों को लगता है, और शायद यह सही भी है, समग्र विकास सूचकांकों में वे मध्य और उत्तर भारत के राज्यों की तुलना में कहीं अधिक आगे हैं, विशेष रूप से आईटी क्षेत्र, विनिर्माण, फार्मास्यूटिकल्स, मानव संसाधन विकास, उच्च तकनीकी और स्कूली शिक्षा में। उनकी एक बड़ी संख्या अनिवासी भारतीयों की भी है, जो विदेशों से राष्ट्रीय कोष में अरबों डॉलर जोड़ते हैं। दक्षिण भारत का समुद्री मार्ग से खाड़ी एवं अन्य देशों के साथ व्यापार का समृद्ध इतिहास रहा है, जो उन्हें व्यापार और विस्तारित परिवारों के माध्यम से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आपस में काफी जोड़कर रखता है। आज बंगलुरु, हैदराबाद, चेन्नई अग्रणी ग्लोबल कैपेसिटी सेंटर्स हैं, और उन्हें अपने यहां बड़ी संख्या में कामगार प्रवासी समुदाय और सफेदपोश नौकरियां मुहैया करवाने पर गर्व है। उन्हें डर यह है कि आगामी परिसीमन उनके राजनीतिक और वित्तीय भविष्य की जड़ों को काट देगा। शिक्षा ने दक्षिण भारत को परिवार नियोजन के लाभों से जागरूक किया और उन्होंने आबादी नियंत्रण में काफी सफलता भी प्राप्त की है।
यदि परिसीमन की वर्तमान प्रक्रिया को अंजाम दे दिया जाता है तो संसद में वहां से आने वाली कुल सीटों का प्रतिशत घट जाएगा और इसके मुख्य लाभार्थी यूपी, बिहार, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र होंगे। इन दिनों इस विषय पर खुलकर कहा जा रहा, लेकिन जब मैं दक्षिण भारत में कुछ बैठकों में भाग लेने जाता था तब नौकरशाही के स्तर पर इस मामले पर बात दबी आवाज़ में की जाती थी। उनका डर यह था कि शिक्षा, नियंत्रित जनसंख्या, बेहतर संस्थागत और शैक्षिक बुनियादी ढांचा और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में अधिक योगदान के बावजूद, संख्या के आधार से वे कभी राजनीतिक रूप से महत्त्वपूर्ण स्थिति में नहीं रह पाएंगे। यह बात बिना लाग-लपेट कही जाती थी, बाकी आप पर छोड़ दिया जाता था कि अपने निष्कर्ष खुद निकालें। केन्द्र के साथ खुले संवाद के अभाव में, धीरे-धीरे राजनेता सार्वजनिक मंचों पर आकर अब वह सब कहने लगे हैं, जो पहले अनकहा रहा। उन्हें परिसीमन नहीं चाहिए, वे समान नागरिक संहिता नहीं चाहते, वे नहीं चाहते कि हिन्दी उनपर थोपी जाए, बल्कि वे केंद्र से ज्यादा धन और राष्ट्रीय राजनीतिक मंच पर अधिक हैसियत चाहते हैं। बड़ा सवाल यह है कि क्या कोई उनसे इस सिलसिले में वार्ता कर रहा है? यह सरकार का कर्तव्य होता है कि संभावित समस्या का पूर्वानुमान लगाए और सुनिश्चित करे कि पुराने और नए विवादों की बारीक दरारें चौड़ी खाई में परिवर्तित न होने पाएं। हमें नहीं भूलना चाहिए कि क्षेत्रीय राजनीति पर द्रविड़ आंदोलन का हमेशा से तगड़ा साया रहा है और डीएमके, एआईएडीएमके और एमडीएमके, सभी इसी आंदोलन की उपज हैं।
फिलहाल पांच प्रमुख दक्षिणी राज्य (तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, तेलंगाना और आंध्र) के पास संसद की कुल 543 सीटों में से 129 सीटें हैं, जो कुल राष्ट्रीय वोटर संख्या के महज 23.7 फीसदी का प्रतिनिधित्व करती हैं। जबकि इसकी तुलना में, चार उत्तरी सूबे (यूपी, बिहार, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश) जनगणना के हिसाब से सबसे अधिक लाभ ले रहे हैं। उनके पास 543 में से 197 सीटों का प्रतिनिधित्व है, यानी उनके पास संसद में पहले से ही 36.2 फीसदी वोट शेयर है, शेष बची सीटें 27 अन्य राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के बीच बंटी हुई हैं। अगर आप दक्षिण भारत से हैं, जिसका सामना पहले ही अधिक दबदबे वाले उत्तर भारत से है और वह और अधिक प्रभुत्त्व बनाने की ओर अग्रसर है, तो आपको अपनी हैसियत खोने का डर जायज है। एक बात जो मैं समझ नहीं पाया, वो यह कि उच्चतम स्तर पर कोई गंभीर बातचीत क्यों नहीं चली। पारिवारिक विवादों से लेकर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय विवादों तक में, सदा संवाद ही समाधान का रास्ता रहा है। यह बातचीत किसी समस्या के आरंभिक लक्ष्ण बनते ही या पैदा होने के बाद, कभी हो सकती है, फिर वार्ता करने में झिझक क्यों? बातचीत कमजोरी की निशानी न होकर समस्याएं सुलझाने की इच्छाशक्ति होती है और संवाद शुरू करने के लिए सबसे बढ़िया है कि बात सीधे संबंधित पक्ष से की जाए। सरकार उच्च स्तरीय प्रतिनिधियों के जरिये संबंधित राज्यों से बात करे, बातचीत खुलकर हो। दिमाग खुला रखकर कठिन से कठिन समस्याओं का समाधान संभव है।
यही बात पूर्वोत्तर पर भी लागू है। यह वो इलाका है, जहां पर सहमति और मतभेद हमेशा एक साथ मौजूद रहे हैं, वहां के मुद्दों पर राष्ट्रीय मीडिया और राजनेता आमतौर पर गायब रहते हैं। यहां मुख्य भूमि पर वहां के बारे में जो कुछ सुनते हैं, वह वहां जमीनी हकीकत पर ठीक उलट दिखाई देता है। समझौते की आड़ में नगालैंड पर कभी भूमिगत रहे तत्त्वों का राज दशकों से चला हुआ है, दीमापुर उनका गढ़ है, एक तरह से राजधानी। वे जब चाहें, जहां चाहें, नाकाबंदी कर देते हैं या उठा लेते हैं। केंद्र सरकार की मर्जी के खिलाफ मिजोरम म्यांमार से आने वाले लोगों को शरण दे रहा है और उनके लिए तथा मणिपुर के बेदखल हुए आदिवासियों के लिए सहायता शिविर स्थापित किए हैं। म्यांमार से लगती मणिपुर और मिजोरम की सीमा लगभग खुली है। मणिपुर त्रासदी जब से शुरू हुई है, कई लोगों की जान चली गई, और इससे कई गुना लोग बेघर हुए हैं और विभिन्न कबीलों के हथियारबंद गिरोह अपने-अपने इलाके में शासन चला रहे हैं। वे जब चाहें लूटपाट, बलात्कार और हत्या कर देते हैं, पुलिस शस्त्रागारों से बड़े पैमाने पर हथियारों की लूट हुई है। विभिन्न जनजातियों के सभी प्रमुखों के साथ वृहद बातचीत क्यों नदारद है? क्या केवल फौजी ताकत का प्रयोग ही समाधान है? देश के लिए पुरानी चिंता का अन्य स्रोत पंजाब और जम्मू-कश्मीर राज्य हैं। कुछ समय राहत के बाद वहां फिर से सरगर्मियां बढ़ी हैं। यह उस ज्वालामुखी की भांति है, जो सतह के नीचे धधकता रहता है और एक दिन अचानक फट जाता है। हालांकि, ज्वालामुखी के विपरीत, उपरोक्त वर्णित क्षेत्रों में हम शांति लाने के लिए कदम उठा सकते हैं।
केंद्र एवं राज्य सरकारों को संसद, राज्यों की विधानसभाओं और लोगों से बात करनी चाहिए। लोगों को विश्वास में लिया जाना चाहिए, शांति में हम सभी का हित है। पंजाब और जम्मू-कश्मीर, दोनों राज्यों में फिर से सरगर्मी बढ़ने लगी है और ऐसा लगता है कि सीमा पार के हमारे पड़ोसी एक बार फिर से आग भड़काने में लगे हैं। रोजाना गंभीर घटनाएं हो रही हैं और सरकार से हमें केवल लफ्फाजी सुनने को मिल रही है। धर्म और राजनीति का घालमेल एक घातक मिश्रण है, जैसा कि हम विगत में देख चुके हैं। ऐसी घटनाओं को दबायाा नहीं जा सकता। राजनीतिक दलों को स्वार्थ साधना बंद करना होगा और सरकार को अपनी इच्छाशक्ति और प्रशासन को अपना संकल्प दिखाना चाहिए - यदि अभी नहीं, तो कब?

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लेखक मणिपुर के राज्यपाल एवं जम्मू-कश्मीर में पुलिस महानिदेशक रहे हैं।

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