संस्कृति-संस्कारों संग रसात्मकता
सुशील ‘हसरत’ नरेलवी
समीक्ष्य कृति ‘मनवा अनुरागी है’ सुप्रसिद्ध एवं सुअलंकृत साहित्यकार डॉ. घमंडीलाल अग्रवाल का माहिया-संग्रह है। लेखक साहित्य जगत को विभिन्न विधाओं में लगभग 147 पुस्तकें भेंट कर चुके हैं। ‘माहिया’ पंजाब का प्रसिद्ध लोकगीत है, जिसमें प्यार-मनुहार, राग-अनुराग, मिलन-बिछुड़न, मान-मुनव्वल, रूठना-मनाना, उलाहना-सताना आदि भावों की नोकझोंक एवं छेड़छाड़ के तौर-तरीक़ों के माध्यम से अभिव्यक्ति होती है। त्रिपदी मात्रिक छन्द ‘माहिया’ में रचित ‘मनवा अनुरागी है’ में 26 विषयों पर 520 माहियों का समावेश है। इनके कथ्य में विस्तृत फलक देखने को मिलता है, जिसमें देश-भक्ति, प्रेम-प्रीत की रीत, रिश्तों के विभिन्न आयाम, जीवन की अठखेलियां, घर-आंगन की महक, दीपक की जगमग लौ, आदमीयत की महक, भौतिकवाद का भूगोल, चाहत की रंगीनियां और दुश्वारियां, मौसमों की अंगड़ाइयां, मेलों-गीतों की मस्ती, प्रकृति-प्रेम एवं इसके प्रति सजगता, दुनियावी झमेले, यादों का खट्टा-मीठा अनुभव, जीवन की टेड़ी-मेढ़ी राहों की चुभन, तपन और ठोकरों के गणित का विधान तो मुस्कान समाहित है। बानगी के तौर पर कुछ माहिया :-
‘तुम आन मिले जबसे/ संकट के दीपक/ बुझ गए सभी तबसे।’ ‘रण में रिपु को मारे/ लगे देशवासी/ हर सैनिक को प्यारे।’ ‘भारत के मीत सदा/ वीर जवानों ने/ दिलवाई जीत सदा।’ ‘आंखों का है तारा/ जिससे भी पूछो/ भारत सबको प्यारा।’ ‘होगा न इस जैसा/ कलियुग में सचमुच/ भगवान बना पैसा।’
समीक्ष्य कृति ‘मनवा अनुरागी है’ में निहित माहियों में भारतीयता के साथ अपनी संस्कृति एवं संस्कारों के संवहन की प्रेरणात्मक अभिव्यक्ति भी हुई है। कवि-मन ने जीवन के विभिन्न पहलुओं और प्रकृति की धूप-छांव के सुन्दर चित्रण प्रस्तुत किये हैं, जिनमें कहीं-कहीं मनोवैज्ञानात्मक विश्लेषण का पुट भी झलकता है। ‘मनवा अनुरागी है’ का कलापक्ष तथा शैली प्रभाव छोड़ते हैं। गेयता इनकी खूबी है। सहज, सरल भाषा एवं यथोचित शब्द-विन्यास लयात्मकता एवं रसात्मकता क़ायम रखते हैं।