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हिंद-प्रशांत इलाके में भारतीय कूटनीतिक बढ़त

06:39 AM Oct 24, 2024 IST
पुष्परंजन

‘इंडो-पैसिफिक’ नाम से ही स्पष्ट है, हिंद और प्रशांत महासागर की ज़द में आने वाले देश। हिन्द-प्रशांत में 40 देश और अर्थव्यवस्थाएं शामिल हैं : ऑस्ट्रेलिया, बांग्लादेश, भूटान, ब्रुनेई, कंबोडिया, दोनों कोरिया, भारत, इंडोनेशिया, जापान, लाओस, मलयेशिया, मालदीव, मंगोलिया, म्यांमार, नेपाल, न्यूजीलैंड, पाकिस्तान, चीन, फिलीपींस, सिंगापुर, श्रीलंका, ताइवान, थाईलैंड, पूर्वी तिमोर और वियतनाम। इन 26 देशों के साथ प्रशांत द्वीप के 14 देशों को जोड़ लीजिये, जिसमें अमेरिका का हवाई वाला इलाक़ा भी शामिल है। प्रशांत द्वीप समूह पश्चिम में इंडोनेशिया से लेकर पूर्व में ईस्टर द्वीप तक वृहदाकार इलाके में 20,000 से अधिक द्वीप शामिल हैं, जिनमें इंडोनेशिया और पापुआ न्यू गिनी द्वारा साझा किया जाने वाला सबसे बड़ा द्वीप, ‘न्यू गिनी’ भी है। जिन महाशक्तियों ने लम्बे समय तक इस इलाके को काबू में रखा, उनके लिए अपना प्रभाव बनाये रखने की चुनौती है। अमेरिका इसी सिंड्रोम से गुज़र रहा है।
जो बाइडेन जब सत्ता में आये, उसके कुछ महीनों बाद हिन्द-प्रशांत नीतियों को रिव्यू करने का आदेश व्हाइट हाउस ने सीआईए को सौंपा था। मार्च, 2021 में सीआईए के निदेशक के रूप में नियुक्त बिल बर्न्स, इंडो-पैसिफिक के रणनीतिकार थे। जुलाई, 2021 में सीआईए ने एक विस्तृत रिपोर्ट दी। इंडो-पैसिफिक में चीन के प्रभाव को कैसे कम करें, उसकी योजना बनी। लेकिन चार वर्षों में निराशा ही हाथ लगी। जापान में लगभग 55 हज़ार अमेरिकी सैन्यकर्मी, दक्षिण कोरिया में 28, हज़ार, ऑस्ट्रेलिया, फिलीपींस, थाईलैंड और गुआम में कई हज़ार अमेरिकी सैनिक तैनात हैं। अपर्याप्त बजट, प्रतिस्पर्धी प्राथमिकताओं और चीन से निपटने के तरीके पर वाशिंगटन में आम सहमति की कमी के कारण इन्हें मेंटेन करना भारी पड़ रहा है। यों, कहने के लिए पेंटागन ने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, साइबर और अंतरिक्ष-आधारित प्रणालियों जैसी अत्याधुनिक तकनीकों में निवेश को बढ़ा दिया है। लेकिन, आप भारत जैसे दोस्त के साथ सिख आतंकवाद के इश्यू पर जस्टिन ट्रूडो जैसी शख्सियत की तरफ़दारी करें, तो नई दिल्ली को पाला बदलने में कितनी देर लगेगी? दरअसल, यही हुआ है।
शी, ताइवान के प्रति अपने व्यवहार में बदलाव ला रहे हैं। दक्षिण चीन सागर में कृत्रिम द्वीपों का निर्माण और सैन्यीकरण चीन कर रहा है। चीन ने कंबोडिया में एक विस्तारित नौसैनिक बंदरगाह पर भी काम शुरू किया है, जो किसी अन्य एशियाई देश में उसका पहला सैन्य अड्डा बन सकता है। सोलोमन द्वीप के साथ एक सुरक्षा समझौता, इसी तरह की कूटनीतिक कोशिशों का हिस्सा है। पेइचिंग, अन्य प्रशांत देशों को आक्रामक रूप से लुभाने की कोशिश कर रहा है। क्या इस ‘कूटनीतिक बिलियर्ड’ को पुतिन खेल रहे हैं? इसके विपरीत, अमेरिका मध्य पूर्व संघर्षों में अपरोक्ष रूप से उलझ चुका है। अफ़ग़ानिस्तान से सैनिकों की वापसी के बाद, अमेरिकी टैक्स पेयर्स राहत की सांस लेने ही वाले थे, कि जो बाइडेन प्रशासन ने यूक्रेन का मोर्चा खोल दिया। यूक्रेन को 54 अरब डालर की प्रतिबद्धता अमेरिकी टैक्स पेयर्स को चुभने लगी है। अमेरिकी अधिकारी इस बात से जूझ रहे हैं, कि एक ही समय में चीन और रूस से कैसे निपटें?
जो आमतौर पर ज़ेरे बहस नहीं होती, वो हैं पुतिन की खामोश चालें। हिन्द-प्रशांत समेत दक्षिण-पश्चिम एशिया में जो रणनीतिक बदलाव आ रहा है, उसमें ‘मास्को-पेइचिंग नेक्सस’ की बड़ी भूमिका है। पुतिन और शी यदि प्रच्छन्न हैं, तो मोदी बिलकुल प्रत्यक्ष रूप से कूटनीति के अखाड़े में हैं। पुतिन और शी ने दक्षिण-पूर्व से लेकर पश्चिम एशिया में व्यापक रणनीतिक बदलाव किया है, तो पीएम मोदी ने भी अपने आपको बदला है। कल तक मोदी इस इलाके में दक्षिणपंथ के नायक माने जाते थे। ऐसे दक्षिणपंथ के कट्टर नायक ने क्यों वामपंथी शासकों को गले लगाया है? यह भी तो विमर्श योग्य प्रश्न है।
केपी शर्मा ओली और मोदी का खटराग अब आप नहीं सुनेंगे। 3 सितंबर, 2024 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली से न्यूयार्क में मुलाकात की। दोनों नेता भरत-मिलाप की मुद्रा में थे। उनके बीच उभयपक्षीय बैठक ऊर्जा, प्रौद्योगिकी, और व्यापार पर केंद्रित थी। बयान दिया कि भारत-नेपाल मित्रता बहुत मजबूत है, और हम अपने संबंधों को और भी गति देने के लिए तत्पर हैं। पीएम ओली के लिए अब लिपुलेख मुद्दा नहीं रहा। आप फिर श्रीलंका के वामपंथी नेताओं की बात करें। वामपंथी जनता विमुक्ति पेरामुना (जेवीपी) के नेता अनुरा कुमारा दिसानायक चुनाव से पहले अपने पूरे जत्थे के साथ भारत आये थे। उन्हें सत्ता में आने के वास्ते, क्या कुछ मदद मोदी शासन ने दी थी, उसकी चर्चा फिर कभी। इस बार श्रीलंका, मालदीव हो, या नेपाल, या फिर बांग्लादेश, भारत और चीन के बीच ठीक से झांकिये, तो शत्रु भाव नहीं, क्षेत्रीय सहयोग का समभाव पैदा हुआ है। भारत से आड़े-तिरछे चलने वाले मुइज़्ज़ू, भीगी बिल्ली क्यों बन गए? इस्लामाबाद नई दिल्ली को गले लगाने के वास्ते क्यों आतुर है? इन तमाम सवालों के उत्तर ढूंढ़ने की आवश्यकता है।
मोदी न केवल आपदा को अवसर में बदलने वाले नेता हैं, बल्कि जिससे ठन जाती है, उसके ‘अवसर’ को ‘आपदा’ में बदल देते हैं। आप 2020 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव को याद करें। ‘हाउडी मोदी’ इवेंट के दौरान जोशो-जुनून का स्मरण करें। उसके प्रकारांतर, भारत में मोदी भक्त, ट्रंप की जीत के लिए मनौती, पूजा-पाठ, यज्ञ सारे कर्मकांड कर रहे थे। लेकिन आज की तारीख में जस्टिन ट्रूडो से जब ठनी, ट्रंप ‘ना काहू से दोस्ती-ना काहू से बैर’ वाले भाव में नज़र आये। सिख अतिवादी गुरपतवंत सिंह पन्नू हत्या साज़िश का मामला सुर्ख़ हुआ, ट्रंप तब भी चुप। अब मोदी और उनके समर्थक, ट्रंप के अवसर को आपदा में बदल देने के वास्ते बिलकुल खामोश हो गए हैं। अमेरिका में नए निज़ाम के आने के बाद, एशिया-प्रशांत नीति भी तय हो जाएगी।
इस सारे खेल के पीछे रूसी कच्चे तेल की बड़ी भूमिका है। इसी वजह से यूक्रेन पर पीएम मोदी के प्रवचन पुतिन सुन भी रहे हैं। भारत अपनी वैश्विक पोज़िशन बेहतर कर रहा है। दक्षिणपंथ को वामपंथ ने गले लगा लिया है। चीन-पाकिस्तान से दोस्ती भी परवान चढ़ेगी। तो क्या हम आत्ममुग्ध होकर शवासन मुद्रा में चले जाएं? यह मत भूलिए, चीन के पास दुनिया की सबसे बड़ी नौसेना और एशिया की सबसे बड़ी वायु सेना है। उसके पास मिसाइलों का एक विशाल शस्त्रागार है, जिसे संकट के समय पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में सैन्य शक्ति के प्रदर्शन के साथ अमेरिका को रोकने के लिए डिज़ाइन किया गया है। चीन का तीसरा और सबसे उन्नत विमानवाहक पोत पूरा होने वाला है और अंतरिक्ष युद्ध को ध्यान में रखकर नए हार्डवेयर विकसित किए जा रहे हैं। भारत को ऐसे में क्या करना चाहिए?

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लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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