समुद्री सुरक्षा को लेकर भारत की प्रतिबद्धता
नौ अगस्त के दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वैश्विक समुद्रीय सुरक्षा को लेकर संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद बैठक की अध्यक्षता करने वाले भारतीय प्रतिनिधि मंडल की अगुवाई की है। इस वार्ता में विश्व के अनेक शीर्षस्थ नेताओं ने भाग लिया था, रूसी राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन, कीनिया के राष्ट्रपति युहूरू केन्याटा, वियतनाम के प्रधानमंत्री फैम मिन्ह चिन और अफ्रीकी महाद्वीप के 55 देशों के संयुक्त मंच ‘अफ्रीका यूनियन’ के अध्यक्ष फेलिक्स तशीकेदी इत्यादि थे। अमेरिका और फ्रांस का प्रतिनिधित्व विदेश मंत्री स्तर पर क्रमशः एंथनी ब्लिंकेन और जीन वाईवेस ला ड्राएन ने किया था। यह पक्का है कि राजनयिक नामोशी की आशंका के चलते चीन ने अपना प्रतिनिधित्व कनिष्ठ ओहदे के जरिए करना तय किया था, लिहाजा उसकी उपस्थिति संयुक्त राष्ट्र में स्थाई उप-प्रतिनिधि गेंग शुआंग के रूप में थी। अलबत्ता पाकिस्तान की अपने बड़बोले विदेश मंत्री के जरिए बात रखने की पेशकश को ठुकरा दिया गया।
प्रधानमंत्री मोदी ने अंतर्राष्ट्रीय नौवहनीय मार्गों की सुरक्षा के महत्व पर जोर देते हुए इसे मानवता की संयुक्त विरासत और मुल्कों के बीच व्यापार के लिए जीवनरेखा बताया। उन्होंने देशों के बीच जारी विभिन्न समुद्रीय विवादों से दरपेश समस्याओं और चुनौतियों का भी जिक्र किया। उन्होंने कहा कि अनेकानेक वैश्विक चुनौतियां जैसे कि मौसम में बदलाव, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, समुद्री डाकू और सागरीय सीमा विवादों की वजह से महासागरों का काफी महत्व है। उन्होंने वैश्विक नौवहनीय सुरक्षा के मामले में वैध समुद्री व्यापार मार्गों में खड़ी हुईं अड़चनों को आपसी समझ और सहयोग बनाकर सुलझाने पर बल दिया। मोदी ने अनुरोध किया कि नौवहनीय विवादों का निपटारा केवल शांतिपूर्ण ढंग से और अंतर्राष्ट्रीय कानून के आधार पर होना चाहिए। उनके इस संबोधन को परिषद द्वारा अंगीकार करने का अर्थ है समुद्रीय सीमा विवादों को सुलझाने में सुसपष्ट मानदंड का खाका बनना। चीन ने हिंद-प्रशांत महासागरीय क्षेत्र में अपने पड़ोसी मुल्कों से जारी जलीय-थलीय सीमा विवादों के निपटारे में लगातार बल प्रयोग वाला एक नया रंग-ढंग अपना लिया है।
जबकि भारत ने अपने सभी पड़ोसी देशों के साथ लगभग तमाम जलीय सीमा विवादों को हल कर लिया है, केवल पाकिस्तान के साथ नौवहनीय सीमारेखा निर्धारित करनी बाकी है। जबकि चीन के जलसीमा विवाद जापान, दक्षिण कोरिया, उत्तर कोरिया, वियतनाम, फिलीपींस, सिंगापुर, मलेशिया, इंडोनेशिया, ब्रुनेई और ताइवान इत्यादि देशों के साथ जारी है। इन समुद्रीय विवादों के अलावा चीन का थलीय सीमा को लेकर झगड़ा लाओस, मंगोलिया, म्यांमार, भारत, नेपाल और भूटान के साथ है। तिब्बत के साथ भी इसकी थलीय सीमा पर सवाल उठते हैं, क्योंकि उसने कभी तिब्बत पर अपनी सार्वभौमिकता का उपयोग नहीं किया है, जिसके ऐतिहासिक रूप से अपनी विशिष्ट पहचान के साथ मध्य एशियाई पड़ोसी मुल्कों और दक्षिण एशिया में नेपाल, भारत और भूटान से खास संबंध रहे थे। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा समिति की बैठक में अमेरिका और फ्रांस के विदेश मंत्रियों की उपस्थिति होना चीन के तमाम जलीय-थलीय सीमा विवादों पर वैश्विक सरोकार का संकेत है। जो बताता है कि भारतीय प्रधानमंत्री द्वारा उठाए बिंदुओं को ध्यान में रखते हुए पश्चिमी ताकतें वैश्विक नौवहनीय विषयों पर चिंतातुर हैं।
चीन अपनी थलीय-जलीय सीमा विवादों में बल प्रयोग करने में जरा भी हिचकिचा नहीं रहा। भारत के साथ सीमा संबंधी इसके असामान्य दावों में लंबे समय तक तनाव बने रहने के बाद हाल ही में बड़ी लड़ाई होने की नौबत बन गई थी, इसका मंजर विश्वभर ने पिछले साल लद्दाख प्रसंग में देखा। अभी भी चीन ने देपसांग और गोगरा जलधारा क्षेत्र से अपने सैनिक पीछे नहीं हटाए हैं, जिनको पिछले साल कब्जाया था। फरवरी, 1979 में चीन और वियतनाम के बीच चला इलाकाई विवाद पूर्ण युद्ध में तब्दील हो गया था, जब चीन ने टैंकों और तोपों समेत 2 लाख सैनिकों के साथ वियतनाम को ‘सबक सिखाने’ के लिए धावा बोल दिया था। लेकिन वियतनाम की कड़ी टक्कर से यह चढ़ाई फजीहत में बदल गई। इस प्रसंग में चीन ने वियतनाम के कुछ जलीय इलाके पर भी अपना हक जताया था। आगे चलकर चीन ने अपनी नौसैन्य ताकत का प्रभाव बरतते हुए वियतनाम के समुद्री सीमा में घुसपैठ जारी रखी और आज भी कर रहा है। परंतु हैरानी की बात है कि वियतनाम को स्वदेश निर्मित ब्रह्मोस मिसाइलों से लैस करने वाली अपनी पेशकश से भारत पीछे हट गया है। फिर भी, वियतनाम वह देश है, जिसकी साख और जीवटता के चलते भारत, रूस और यहां तक कि अमेरिका भी सहायता करने को तैयार हैं।
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को अपने संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बताया कि कैसे भारत ने अंतर्राष्ट्रीय न्याय का सम्मान करते हुए बंगाल की खाड़ी में एक टापू बांग्लादेश को सौंप दिया था, जब अंतर्राष्ट्रीय न्यायाधिकरण ने फैसला बांग्लादेश के हक में सुनाया था। वहीं 2016 में जब अंतर्राष्ट्रीय न्यायाधिकरण ने फिलीपींस की जलीय सीमा के अंदर कई टापुओं पर चीनी दावों को खारिज कर फैसला फिलीपींस के हक में सुनाया तो चीन ने इसको खुलेआम खारिज करते हुए अंतर्राष्ट्रीय कानून को धता बताया। चीन ने कब्जाए गए इन टापुओं पर फिलीपींस की किसी प्रकार की पहंुच को बलपूर्वक रोक रखा है।
वियतनामी माहिरों न्गयूयेन होंग थाओ और न्गयूयेन थी लाहुआंग ने अंतर्राष्ट्रीय समुद्री कानून न्यायाधिकरण के फैसले का विस्तृत अध्ययन करने केबाद कहा ः दक्षिण चीन सागर के इस सीमा विवाद मामले में फैसला अपने हक में आने के बाद फिलीपींस के राष्ट्रपति रॉड्रगो ड्यूटेयर ने सावधानीवश और अपनी जीत को ज्यादा तूल न देते हुए वर्ष 2020 में संयुक्त राष्ट्र में अपने संबोधन में जोर देकर कहा था ः ‘न्यायाधिकरण का फैसला अब अंतर्राष्ट्रीय कानून का अंग है, समझौते से परे है, और उन प्रयासों से भी परे है कि सरकारें इसको अपने हिसाब से कमतर, मिटा या बुहार कर एकतरफ कर सकें।’ यह हैरानी की बात है कि आसियान संगठन के कुछ देश जैसे कि मलेशिया और ब्रुनेई इस अंतर्राष्ट्रीय न्यायाधिकरण के फैसले को आधार बनाकर अपनी जलीय सीमा बचाने के लिए चीन को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चुनौती देने से कतरा रहे हैं। इसके अलावा आसियान मुल्क बतौर एक समूह चीन के सीमा संबंधी दावों को चुनौती देने में एकजुट नहीं हो पाए। हालांकि, इंडोनेशिया ने चीन के विस्तारवाद पर सख्ती से अमल करते हुए अपनी समुद्रीय सीमा में सैन्य दृढ़ता दिखाई है।
बतौर क्षेत्रीय संगठन आसियान गठबंधन फिर किस काम का अगर यह अपने उन सदस्यों के साथ नहीं खड़ा हो पा रहा जिन्हें विस्तारवादी और दूसरों पर अपनी महत्वाकांक्षा थोपने वाले चीन से सीमाओं का अतिक्रमण झेलना पड़ रहा है? क्वाड संगठन के सदस्य, जिनकी आसियान देशों के साथ औपचारिक संवाद भागीदारी है, यदि वे आसियान की उच्चस्तरीय बैठकों में इन मुद्दों को, द्विपक्षीय और संयुक्त, दोनों को उठाएं, तो उपयोगी होगा। भारत के आसियान संगठन से अच्छे संबंध हैं, जिसे बतौर क्षेत्रीय गुट सम्मिलित रूप से यह तय करना है कि क्या किसी सदस्य द्वारा अपनी इलाके को छोड़कर चीन के सामने आत्मसमर्पण करना वांछित घटनाक्रम है। भारत बतौर एक क्वाड सदस्य इन मुद्दों को इस गुट के अन्य सदस्य, जिनकी आसियान सदस्यों से संवाद सहभागीदारी है, आसियान के सम्मेलन में उठाने के लिए तैयार रहना चाहिए।
लेखक पूर्व वरिष्ठ राजनयिक हैं।