अफग़ान परिदृश्य में भारत की चुनौती
बहुत पुराना वाकया नहीं है। 11 महीने पहले, 25 सितंबर, 2020 को विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने एक फोटो ट्वीट की। लिखा था, ‘ग्लैड टू मिट मार्शल अब्दुल रशीद दोस्तम। अफग़ान नियंत्रित-अफग़ान नेतृत्व और अफग़ानों द्वारा शांति प्रयासों के प्रति भारत प्रतिबद्ध है।’ तस्वीर में दोस्तम और जयशंकर मुट्ठी से मुट्ठी स्पर्श करते दिखे। कोरोना प्रोटोकॉल ने गले मिलने की मनाही कर रखी है, चुनांचे मुट्ठी से मुट्ठी मिलाइये अथवा कोहनी से कोहनी स्पर्श कर दोस्ती का इज़हार कीजिए। अब्दुल रशीद दोस्तम नार्दन अलायंस के चोबदारों में से एक रहे हैं, जिन्होंने तालिबान के विरुद्ध मोर्चा खोल रखा था।
मज़ारे शरीफ में अब्दुल रशीद दोस्तम की तूती बोलती थी। तालिबान जब 1996 में सत्ता में आये, दोस्तम भागकर तुर्की चले गये थे। मई, 2001 में दोस्तम मज़ारे शरीफ लौट आये और उन्हें ताक़तवर बनाने में अमेरिकी फोर्स ने मदद की थी। 24 नवंबर, 2001 को कुंदुज में 15 हज़ार तालिबान लड़ाकों ने आत्मसमर्पण किया था। उन दिनों पश्चिमी मीडिया ने ख़बर ब्रेक की कि दोस्तम ने दो हज़ार तालिबानों को गुफा में बनाये गैस चेंबर में घुसाकर मार डाला था। 2018 तक दोस्तम को दुनिया ‘वार क्रिमिनल’ के रूप में देखने लगी थी। एक समय दबाव इतना बढ़ा था कि ओबामा प्रशासन ने नरसंहार वाले आरोपों की जांच के वास्ते एक कमेटी गठित की थी। तालिबान ने दोस्तम, जून, 1992 से 9 सितंबर, 2001 तक अफग़ानिस्तान के राष्ट्रपति रह चुके बुरहानुद्दीन रब्बानी और उस अवधि के रक्षा मंत्री अहमद शाह मसूद, इन तीन लोगों को मौत के घाट उतार देने की घोषणा कर रखी है। ऐसे अब्दुल रशीद दोस्तम को कोरोना काल में दिल्ली बुलाना और तालिबान के विरुद्ध बने मोर्चे को मदद का आश्वासन देना, क्या सही क़दम था? इस सवाल पर मंथन की आवश्यकता है। शनिवार को बाख प्रांत और मज़ारे शरीफ़ पर तालिबान के कब्ज़े के बाद अता मोहम्मद नूर और अब्दुल रशीद दोस्तम कहीं फुर्र हो गये।
अफग़ानिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रहे हमदुल्ला मोहिब रायसीना डॉयलाग के वास्ते 26 अप्रैल, 2021 को बुलाये गये थे। उसके प्रकारांतर 23 जून, 2021 को ताज़िकिस्तान की राजधानी दुशान्बे में शंघाई कोऑपरेशन आर्गेनाइजेशन की बैठक में भी हमारे एनएसए अजीत डोभाल की अपने समकक्ष हमदुल्ला मोहिब से दोबारा मुलाक़ात होती है। दो महीने के अंतराल में दो मुलाकातों का अर्थ यही है कि अफ़ग़ानिस्तान के मामले में भारत का इंगेज़मेंट बढ़ चुका था। उससे पहले जनवरी 2017 में एनएसए अजीत डोभाल इंट्रा-अफग़ान रणनीति को समझने के वास्ते मास्को गये थे। उसके अगले साल, 9 नवंबर 2018 को मास्को में तालिबान-अफगान शांति संवाद का आयोजन किया गया था, जिसमें भारत की ओर से पाकिस्तान में रहे पूर्व उच्चायुक्त टीसीए राघवन और अफग़ानिस्तान में राजदूत रह चुके अमर सिन्हा भेजे गये थे।
विदेश मंत्री एस. जयशंकर कुवैत और केन्या दौरे के समय दोहा दो बार बीच रास्ते उतरे। उनकी पहली ट्रांजिट विजिट, 9 जून, 2021 को थी, जब क़तर के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मोहम्मद बिन अहमद अल मसनद से एस. जयशंकर की मुलाक़ात होती है। दूसरे ब्रेक में 15 जून को क़तर के विदेश मंत्री मोहम्मद बिन अब्दुल रहमान अल थानी, प्रतिरक्षा राज्यमंत्री खालिद बिन मोहम्मद अल अतिया से उनकी भेंट हुई। ज़ाहिर है, इन मुज़ाकिरातों का केंद्रीय विषय अफग़ानिस्तान रहा होगा।
दिल्ली-दोहा और मास्को के दौरों पर ग़ौर करें तो कोई यह नहीं कह सकता कि भारत अफग़ानिस्तान के मामलों को हाशिये पर रखकर चल रहा था। मगर क्या हम कन्फ्यूज्ड थे अथवा हमारी कूटनीति सही दिशा में जा रही थी? यदि हम ठीक जा रहे थे तो भारत के सारे कांसुलेट अस्थाई रूप से बंद करने और अफरातफरी में क़ाबुल दूतावास के कर्मियों को सेना के विमान से ले आने की आवश्यकता क्यों पड़ी? और हमारी विदेश नीति नागरिकता क़ानून से कैसे लिंक हो गई? सीएए के तहत हमने तय कर लिया कि अफग़ानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से जो हिंदू, सिख, बौद्ध, पारसी, जैन शरणार्थी आएंगे, उन्हे भारतीय नागरिकता में प्राथमिकता दी जाएगी। यह नीति भारत में जिस घरेलू वोट बैंक को चकाचौंध करने वाली थी, क्या उससे तालिबान के रणनीतिकार अनजान रह सकते थे? बावज़ूद इसके, जो ख़बरें मिलीं, उससे यह भी स्पष्ट हुआ है कि तालिबान लड़ाकों के एक ग्रुप ने ग्रीन ज़ोन से पांच किलोमीटर दूर एयरपोर्ट तक भारतीय दूतावास कर्मियों की राह आसान करने में मदद की थी। अल जज़ीरा ने 18 अगस्त को इस घटनाक्रम का ब्योरा ‘इंडियाज़ मिडनाइट इवैकुएशन फ्रॉम अफग़ानिस्तान, एस्कोर्टेड बाई तालिबान‘ शीर्षक से प्रकाशित किया है।
प्रश्न यह है कि इस तरह की विकट परिस्थितियों से चीनी दूतावास क्यों नहीं दो-चार हुआ? क़ाबुल के ग्रीन ज़ोन में चीन, रूस, ईरान, पाकिस्तान, तुर्की दूतावास के कर्मी बिना ‘पैनिक’ हुए अपना काम कर रहे हैं। यह वही चीन है, जो 1996 में तालिबान के सत्ता में आने के तुरंत बाद अपने दूतावास को बंद कर गया था। उससे तीन साल पहले 1993 में जब अफगानिस्तान सिविल वार की चपेट में आ चुका था, तब चीन ने एक-एक करके अपने कांसुलेट बंद कर दिये थे। पच्चीस वर्षों में चीन ने अपनी अफग़ान नीति में ऐसा क्या बदलाव किया, जो हम नहीं कर पाये?
ग्लोबल टाइम्स ने 17 अगस्त, 2021 को जानकारी दी कि जुलाई महीने में एक चार्टर फ्लाइट के ज़रिये 210 चीनी नागरिक अफग़ानिस्तान से वुहान लाये गये। 18 जुलाई को चीन के पूर्वोत्तर बंदरगाह शहर थिएनचिन में तालिबान नेता मुल्ला अब्दुल ग़नी बारादर से चीनी विदेश मंत्री वांग यी की मुलाक़ात होती है। अर्थात चीन, शिन्चियांग में अलगाववाद को बढ़ावा न देने, अपनी परियोजनाओं और अफग़ानिस्तान में निवेश की सुरक्षा के वास्ते तालिबान नेतृत्व से समय-समय पर आश्वासन लेता रहा है। तीन साल पहले पाकिस्तानी जेल से मुल्ला बारादर छूटे थे, उसके तुरंत बाद इस्लामाबाद स्थित चीनी दूतावास ने उनसे संपर्क साधा था। मुल्ला बारादर सितंबर, 2019 में एक नौ सदस्यीय शिष्टमंडल के साथ पेइचिंग गये, तभी चीनी दूरदर्शिता का अनुमान दिल्ली को लगा लेना चाहिए था।
यदि दूसरी-तीसरी पांत के तालिबान नेता भी निरंतर पेइचिंग के संपर्क में रहे, उससे बात समझ में आती है कि चीन ने अफग़ानिस्तान की भू-सामरिक परिस्थितियों को आंकने में ज़रा भी चूक नहीं की, और इस वास्ते उसने पाकिस्तान, यूएई, रूस और तुर्की का भरपूर इस्तेमाल किया। चीन ने तय किया है कि काब़ुल में उसका दूतावास खुला रहेगा, और जो उसके बचे-खुचे नागरिक हैं, स्थिति सामान्य होने तक घरों से बाहर न ही निकलें। तालिबान पर जो भी नीति भारत सरकार तय करे, मगर यह बात हमें नहीं भूलनी चाहिए कि अफग़ानिस्तान सार्क का सदस्य देश है। उसकी पिक्चर अभी बाक़ी है!
लेखक ईयू-एशिया न्यूज़ के नयी दिल्ली संपादक हैं।