भूटान पर चीनी कुदृष्टि को समझे भारत
अभिजीत भट्टाचार्य
नमकू चो घाटी में ढोला चौकी पर चीनी हमले में मिली शिकस्त और अक्तूबर, 1962 में चीनी तानाशाह माओ ज़िदोंग द्वारा भारत को नीचा दिखाना याद है? ढोला क्षेत्र एक तरह से भारत, भूटान और चीन के कब्जे वाले तिब्बत का त्रि-संगम स्थल है। चीनी सेना द्वारा डोकलाम में किया अतिक्रमण याद है? डोकलाम भी भूटान-भारत-तिब्बत का एक त्रि-संगम है। फिर जून, 2020 में गलवान घाटी में, राष्ट्रपति शी जिनपिंग के जन्मदिन के रोज़, चीनी सैनिकों द्वारा 20 भारतीयों को शहीद करने वाला कुकृत्य याद है? पिछले संदर्भ में देखें तो, क्या भारत को मई, 1967 में नक्सलबाड़ी (पश्चिम बंगाल) में हुई पहली गोलीबारी याद है, जिसमें कई सिपाही मारे गए थे और यह भारत में चीनी मूल के ‘जन-स्वतंत्रता युद्ध’ की शुरुआत थी। चीन की साम्यवादी पार्टी और पीपुल्स लिबरेशन आर्मी द्वय द्वारा बनाई और महारत से क्रियान्वित की गई यह लड़ाई, जिसके पैदल सिपाही स्थानीय कारकुन थे, 20 लंबे सालों तक अराजकता पैदा करने के बावजूद ज्यादा परिणाम नहीं दे पाई, परंतु इसमें लगभग 50000 जानों की हानि और सीमांत बंगाल सूबे के सभी प्रशासनिक, आर्थिक और सामाजिक पहलू बर्बाद होने के अलावा क्या मिला?
भारतीय मीडिया के केवल एक हिस्से ने पिछले महीने भूटान-चीन के बीच हुई वार्ता पर खबरें कीं। पिछले सप्ताह भूटान नरेश की भारत यात्रा शुरू होने से पहले, हांगकांग की ‘साऊथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट’ अखबार ने चीन की ओर भूटान के चिंताजनक झुकाव को लेकर चेताया है। यहां तक कि लेख में भारत को छिपी चेतावनी दी गई है कि भूटान का यह कूटनीतिक कदम क्षेत्रीय राजनयिक परिदृश्य में महत्वपूर्ण बदलाव ला सकता है। अखबार का यह आकलन एकदम सही है। तेजी से बदली दृश्यावली ने भारतीय प्रतिष्ठानों में खतरे की घंटी बजा डाली। वह निष्ठुर एवं खून के प्यासे ड्रैगन के खून के पंजों की पकड़ भूटान पर बनते देख अंदर तक हिल गया है– यह मंज़र 1950 में आज़ाद तिब्बत पर चीनी कब्जे से पहली बने हालात की याद दिलाता है। 73 साल गुज़र गए लेकिन लोगबाग अभी भी तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को चीन की शैतानी चालों को सफल होने देने और भारत की मुसीबतों के लिए मुख्य खलनायक मानते हैं। भारत ने अपना इलाका गंवाया है और आज भी गंवा रहा है। इस तरह अपनी संप्रभुता पर चोट पहुंचाने वाले हमलों का सामना कर रहा है।
इस चिंतनीय खबर के बावजूद चीन-भूटान के बीच बनती घनिष्ठता पर भारत के विदेश मंत्रालय की प्रतिक्रिया नपी-तुली रही और ‘तथ्यात्मक’ बयान आया : ‘भारत और भूटान के बीच मित्रता और सहयोग के अनूठे रिश्ते हैं, जो आपसी समझ और विश्वास पर टिके हैं।’ माना यह सही है, लेकिन आज के दिन वह समय-सिद्ध भारत-भूटान मित्रता और आपसी समझ एवं सहयोग पर टिके उस परस्पर विश्वास पर चीनी चालों से गंभीर खतरा आसन्न है। कदाचित यह स्थिति सदा के लिए बदल जाए।
शी जिनपिंग बाजिद हैं कि भूटान की विदेश-नीति निर्धारण में भारत की भूमिका को दरकिनार करके, चीन उसका उसका राजनयिक-दिशानिर्देशक बन जाए। सामान्य वक्त में, किसी को इस पर आपत्ति न होती। लेकिन भारत-चीन के बीच राजनीतिक-कूटनीति द्विपक्षीय संबंधों ने कभी भी सामान्य वक्त नहीं देखा, क्योंकि, चीन की प्रवृत्ति धोखा देने, ठगने, झूठ घड़ने और आक्रामक होने की रही है। भारत और अपने अन्य संप्रभु पड़ोसियों के थलीय-जलीय इलाके में अपना विस्तार करने, बलात हथियाने या कब्जा करने की चीनी कोशिशें, उसकी मंशा का सुबूत हैं, जिसको पूरी दुनिया जानती और मानती है।
चीन और भूटान के बीच सीधा संपर्क बनने से पैदा होने वाले खतरे को, सभ्य देशों की आचार संहिता के संबंध में एक कपोल-कल्पना न समझा जाए। इसके पीछे छिपी है असामान्य भू-राजनीतिक और कब्जाने एवं दबाने की भू-आर्थिकी चाल– यह उस नीति का अंग है, जो जिनपिंग ने निरोल रूप से भारत के लिए अपना रखी है। भूटान-चीन के बीच सीधा संपर्क यानी भारत के वजूद के लिए खतरा और बहुत बड़ा भूभाग गंवाने की आशंका।
बताया जा रहा है, अपनी बीजिंग यात्रा में भूटान के विदेश मंत्री टांडी दोरज़ी ने चीनी उप-राष्ट्रपति हान झेंग और विदेशमंत्री वांग यी से मुलाकात के बाद चीन से सीमा विवाद पर ‘बड़ी प्राप्ति’ हासिल की है। उन्होंने चीन के साथ मिलकर काम करने की भूटान की इच्छा दर्शायी है। चीन ने भी भूटान में अपना दूतावास खोलने की पुरानी इच्छा दोहराई है। भारत को अवश्य ही इस कदम का पुरज़ोर विरोध करना चाहिए। भारत के वजूद के चलते चीन भूटान में अपनी उपस्थिति महसूस नहीं करवा सकता।
बतौर नीतिगत मामला, भूटान के संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पांचों सदस्यों के साथ (चीन सहित) दूतावास स्तर के राजनयिक संबंध नहीं हैं। इसलिए भूटान द्वारा चीन को राजनयिक पहुंच प्रदान करने से अन्य चार देशों के लिए भी दरवाज़ा खुल जाएगा। संप्रभु भूटान को याद रखना होगा कि हिमालय के पर्यावरणीय रूप से नाज़ुक क्षेत्र में स्थित होने की वजह से वह विदेशियों की बाढ़ के लिए द्वार खोलना गवारा नहीं कर सकता। चीन के प्रवेश के बाद अन्य देशों की आमद होने पर ‘स्वर्ग का पुत्र’ (शी जिनपिंग) भूटान को नर्क बनाने पर तुल जाएगा। भूटान का भविष्य भारत के साथ संबंध प्रगाढ़ बनाए रखने में है, जिसकी मंशा न तो अपने पड़ोसियों को बंधुआ बनाने की है न ही उन्हें कर्ज के पहाड़ तले दबाने या जबरदस्ती उनकी जमीन हड़पने की या नस्लकुशी करने की। इसीलिए भारत की नीति सदा एक मिसाल रही है। क्या हमारे समुद्र तट विहीन दो पड़ोसी देश- भूटान और नेपाल– के नागरिकों को भारत आने के लिए पासपोर्ट अथवा वीज़ा लेना पड़ता है? अपने एक अन्य पड़ोसी किंतु दुश्मन राष्ट्र के नागरिकों द्वारा समय-समय पर किए आपराधिक कृत्यों को झेलने के बावजूद भारत चीन के बरक्स भूटान का वैकल्पिक दोस्त नहीं बन सकता।
मौजूदा हालात में जिस तरह खतरा मंडरा रहा है, उसको लेकर भारत को आज जितना सतर्क रहने की जरूरत है, इससे पहले कभी नहीं थी। ड्रैगन इस वक्त बहुत तेज़ी में है क्योंकि शी जिनपिंग को और गवारा नहीं है कि भारत एक मातहत न बने जैसा कि उन्होंने अन्य छोटे और कमज़ोर मुल्कों और बीआरआई/सीपीईसी वाले देशों को पिछलग्गू बनाकर किया है। भूटान एशिया का एकमात्र राष्ट्र है जिसके चीन के साथ राजनयिक स्तर के संबंध नहीं हैं, यह बात चीनी राष्ट्रपति के लिए बेइज्जती महसूस करने का सबब बनी हुई है। इसलिए जैसे भी हो, भूटान को भी अपनी छत्रछाया में लेना है और भूटान को हड़पने का यह मंज़र भारत मन-मसोसकर देखे– चीन की सोच का यही लक्ष्य है।
चीन को अपने अड़ोस-पड़ोस में दबदबा कायम करने में किसी किस्म की बाधा अब चाहे छोटी या बड़ी स्वीकार नहीं है। इस उपमहाद्वीप से होकर गुज़रते थलीय एवं जलीय मार्ग सामरिक रूप से उसके लिए बहुत अहम और जरूरी हैं और चीन की प्रगति गाथा के समांतर उनको छोड़ नहीं जा सकता।
यहां ज़रा गलती न हो– यदि भारत और भूटान अपना एका और आपस में गुथे उप-हिमालयी भूभाग रूपी सांझी गर्भनाल को तोड़ देंगे, तो इस स्वनिर्मित बर्बादी के लिए दोनों ही दोषी करार होंगे।
लेखक स्तंभकार हैं।