भ्रामक कोलाहल से बिगड़ते भारत-कनाडा रिश्ते
भारतीय भूमि पर तथाकथित खालिस्तान के प्रति कोई समर्थन न होने और दुनियाभर में फैले सिखों की बड़ी संख्या द्वारा धार्मिक आधार पर अलगाववाद को खारिज करने के बावजूद कनाडा में आतंकी हिंसा और अलगाववाद को बढ़ावा देने वाले फले-फूले हैं। वहां बसे सिखों का अतिवादी छोटा वर्ग इसको हवा देता है। काफी कम संख्या में इस किस्म के तत्व ब्रिटेन में भी हैं और इनसे भी कम गिनती में अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड में हैं। हालांकि कनाडा अकेला देश नहीं है, जहां बसे विदेशी मूल के आतंकी पंजाब और भारत में अन्य जगह पर गड़बड़ के लिए मदद, वित्तीय सहायता या दिशा निर्देश देते हैं। लगातार ऐसे प्रसंग होते आए हैं, जब इस किस्म के अतिवादी अवैध रूप से पाकिस्तानी सीमा के रास्ते भारत में घुसकर आतंकी हमले करते हैं। विदेशों में रह रहे खालिस्तानियों की कार्यप्रणाली यह है कि ज्यादा चढ़ावे वाले अधिक से अधिक गुरुद्वारों का नियंत्रण अपने हाथ में किया जाए और इस तरह धन एवं स्थान का इस्तेमाल कट्टरता को बढ़ावा देने वाले अड्डे की तरह किया जाए। वे श्रद्धालुओं से एकत्रित दान का उपयोग विदेशों में चरमपंथी गतिविधियां चलाने में करते हैं। वे अपने हितैषी उम्मीदवार और दल को जीतने में मदद के वास्ते स्थानीय राजनीतिज्ञों और पार्टियों को खुलकर धन देकर सहायता करते हैं। कनाडा इस तरह की गतिविधियों का मूल केंद्र बना हुआ है।
कुछ यूरोपियन शहरों में मुट्ठीभर सिख प्रदर्शनों में हिस्सा लेते हैं किंतु कनाडा में हालात एकदम अलहदा हैं, जहां भारत की सुरक्षा को चोट पहुंचाने को दृढ़ संकल्प लोगों को प्रचुर धन मुहैया है। इससे अधिक गंभीर है, कि पाकिस्तान स्थित सबसे पवित्र सिख गुरुधामों की तीर्थ यात्रा पर गए भारतीय यात्रियों को बरगलाना एक आम हरकत है। जब कभी वे लाहौर के डेरा साहिब गुरुद्वारा, जहां पर मुगल बादशाह जहांगीर के राज में पांचवें गुरु अर्जन देव को शहीद किया गया था या फिर गुरु नानक देव के जन्म स्थान ननकाना साहिब गुरुद्वारे जाते हैं, तो कट्टरपंथी उन्हें भारत के विरुद्ध प्रचार से उकसाने का प्रयास करते हैं। ननकाना साहिब जाने वाले तीर्थ यात्रियों की संख्या ज्यादा है। आजादी के बाद तीन दशकों तक यह गुरुद्वारे पाकिस्तान की उपेक्षा का शिकार रहे, लेकिन घाघ और दोहरे चरित्र वाले जनरल जिया उल हक ने पाकिस्तान में इन गुरुधामों का इस्तेमाल भारत से गए श्रद्धालुओं को भड़काने में किया जाना तय किया। जनरल जिया द्वारा यह प्रोपेगेंडा फैलाया गया कि सिख और इस्लाम धर्म के सिद्धांतों में बहुत समानता है, जो कि हिंदू, बौद्ध और जैन धर्म के सिद्धांत से बेमेल है। जबकि भारत से गए सभी सिख भली-भांति जानते हैं कि यह विचार बेतुका है।
पाकिस्तान के दुष्प्रचार का निशाना अब मुख्यतः अमेरिका, यूके, कनाडा और भारतीय सिख तीर्थ यात्रियों पर है। पाकिस्तानी सेना और आईएसआई, जो मुख्य रूप से यह नकारात्मक मुहिम चलाते हैं, इनकी मंशा है कि अलगाववाद की भावना और भारत के प्रति नफरत को हवा देने वाली झूठी कहानियां लगातार फैलती रहें। लाहौर के डेरा साहिब गुरुद्वारे के चारों तरफ आईएसआई प्रदत्त खालिस्तानी झंडे फहराने का यह लेखक चश्मदीद गवाह है। यह सारी प्रक्रिया सिख यात्रियों को भरमाने के वास्ते है। यह मंज़र प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की ‘लाहौर मैत्री यात्रा’ के वक्त भी जारी रहा। इन हरकतों को अन्यों के अलावा पूर्व पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ की शह भी प्राप्त थी, जो ऊपर से दोस्ती और सौहार्द्र की बातों का दिखावा करते थे, इस तरह वे भारतीयों के एक बड़े वर्ग को गुमराह करते रहे कि वाकई भारत से मित्रता और सहयोग बनाने के तगड़े पैरोकार हैं। यह बात पूर्वाग्रही सोच रखने वाले कनाडाई प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो से बरतते वक्त सदा याद रहे। ट्रूडो को दो टूक यह बताने की जरूरत है कि वहां के सिख समुदाय की वोट पाने की चाहत में, उनकी कुल संख्या में बहुत कम गिनती रखने वाले उस वर्ग से गर्मजोशी दिखाकर वे भारत के लिए गंभीर समस्या खड़ी कर रहे हैं, जो भारत में खालिस्तान बनाने की पाकिस्तान के मंसूबों को बल देने में यकीन रखता है।
पाकिस्तान भारत में जिहादियों के अभियानों की मदद करे, यह अपेक्षित है, लेकिन इन करतूतों से उसका आर्थिक और राजनीतिक रूप से बहुत नुकसान हुआ है। वर्तमान प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो और 1968-84 तक कनाडा के प्रधानमंत्री रहे उनके पिता पियरे ट्रूडो का खालिस्तानी आतंकियों से गलबहियां डालने का अज़ब कृत्य एक झटका है। पाकिस्तान प्रायोजित आतंकियों के प्रति स्नेह रखना ट्रूडो पिता-पुत्र का कुख्यात इतिहास है। कनाडा के प्रतिष्ठित पत्रकार टैरी मिलवेस्की की लिखी और हाल में प्रकाशित किताब ‘ब्लड फॉर ब्लड’ में ट्रूडो की दोनों पीढ़ियों की कारस्तानियों का विस्तार से जिक्र है, जब वे कहते हैं : यह पियरे ट्रूडो की सरकार थी, जिसने 1982 में तलविंदर सिंह परमार के प्रत्यर्पण करने की भारतीय मांग को इस अजीबोगरीब आधार पर ठुकरा दिया था कि भारत कॉमनवेल्थ संघ की मल्लिका एलिजाबेथ वाली व्यवस्था से बाहर नहीं है’। जाहिर है यह करते वक्त बड़े ट्रूडो भूल गए कि भारत कनाडा की तरह न होकर, एक गणतंत्र है, जो अपना राष्ट्राध्यक्ष खुद चुनता है! इससे भी बदतर कि एअर इंडिया फ्लाईट 182 को गिराने, जिसमें 329 यात्री मारे गये थे, का मुख्य साजिशकर्ता और कोई नहीं बल्कि तलविंदर सिंह परमार था, जिसके प्रत्यर्पण की भारतीय मांग को प्रधानमंत्री रहते पियरे ट्रूडो ने खारिज कर दिया था।
जस्टिन ट्रूडो की वोट पाने की जरूरतों के चलते और इस क्रम में कनाडा में अच्छी-खासी संख्या वाले खालिस्तानियों पर निर्भरता के कारण यह उम्मीद लगाना अवास्तविक होगा कि वे उन तत्वों के खिलाफ कोई कार्रवाई करेंगे जो घोषित खालिस्तान-समर्थक हैं। उनका व्यवहार अपने पिता से अलग नहीं है, जिनके काम करने के तरीके से 1985 में एअर इंडिया की फ्लाईट 182 गिरी थी। लेकिन कनाडा में महसूस होने लगा है कि भले ही ट्रूडो 2025 तक अपना वर्तमान पंचवर्षीय कार्यकाल पूरा कर लेंगे पर उनकी वह इज्जत नहीं रहेगी, जो पहले थी। इसलिए कनाडा से भारत के रिश्ते जल्द सुधरने वाले नहीं हैं। अगले कुछ समय में भी ट्रूडो की खालिस्तान के प्रति झुकाव रखने वाले अतिवादियों पर निर्भरता कायम रहेगी।
कनाडाई विश्वविद्यालयों में भारतीय छात्रों की बढ़ती संख्या, कनाडा से भारत के संबंधों में अपेक्षाकृत नया किंतु महत्त्वपूर्ण कारक बनकर जुड़ी है। यदि ट्रूडो भारत और भारतीयों के प्रति नापसंदगी को बढ़ावा देने वाली अपनी वर्तमान नीतियां जारी रखते हैं, तो हो सकता है भविष्य में भारतीय विद्यार्थी अब उतना सहज महसूस न करें जितना पहले किया करते थे। भारत से विदेश जाकर पढ़ने वालों के लिए कनाडा एक मुख्य केंद्र रहा है। पिछले साल लगभग 2.3 लाख भारतीय छात्रों ने वहां दाखिला लिया है। यह गिनती कनाडा पहुंचे कुल विदेशी विद्यार्थियों की 41 फीसदी है। जाहिर है उनके अभिभावकों को आस होगी कि वे शांति और सफलतापूर्वक अपनी पढ़ाई पूरी कर लें। चाहे कोई यह उम्मीद करे कि भारतीय विद्यार्थी अपने विद्याकाल में वहां सुरक्षित और खुश रहें लेकिन क्या भारत और भारतीयों के प्रति दुराग्रह रखने वाले ट्रूडो जैसे प्रधानमंत्री के व्यवहार के चलते भारत कभी निश्चिंत हो पाएगा।
लेखक पूर्व वरिष्ठ राजनयिक हैं।