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वैज्ञानिक ढंग से हो उकसाने के मुकदमे की जांच

06:45 AM Dec 08, 2023 IST
वैज्ञानिक ढंग से हो उकसाने के मुकदमे की जांच
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आलोक मित्तल

शायद ही कोई दिन हो जब हम मीडिया में किसी न किसी व्यक्ति द्वारा आत्महत्या करने के बारे में न पढ़ते-देखते हों। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, हर साल लगभग दस लाख लोग आत्महत्या करते हैं और 20 गुना अधिक लोग आत्महत्या का प्रयास करते हैं। औसतन हर 40 सेकंड में एक मौत और हर 3 सेकंड में एक प्रयास। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के अनुसार, भारत में वर्ष 2020 में 1,53,052, 2021 में 1,64,033 व 2022 में 1,70,924 आत्महत्याएं की गईं। आत्महत्या के मामलों में निरंतर वृद्धि चिन्ता का विषय है।
एनसीआरबी के वर्ष 2022 के आंकड़ों के अनुसार आत्महत्या के प्रमुख कारण पारिवारिक समस्याएं, बीमारी, नशे की लत, शादी संबंधी मुद्दे, प्रेम प्रसंग, दिवालियापन व बेरोजगारी हैं। आत्महत्या के काफी मामलों में मृतक के परिजन किसी अन्य व्यक्ति को जिम्मेदार मानते हैं तथा पुलिस से उसके विरुद्ध कार्रवाई के लिए कहते हैं। कई बार कानून-व्यवस्था बनाये रखने को ऐसे मामलों में भी एफआईआर दर्ज करनी पड़ती है, जिसमें आरोपी असल में उस सुसाइड के लिये जिम्मेदार नहीं होता।
भारतीय दंड संहिता की धारा 306 के अनुसार आत्महत्या के लिए उकसाना आपराधिक कृत्य है, जिसमें किसी को अपनी जान लेने के लिए मदद करना, उकसाना या मजबूर करना शामिल है। इन मामलों में दोषी को 10 वर्ष तक सजा एवं जुर्माने का प्रावधान है।
भारतीय दंड संहिता की धारा 107 ‘उकसाने’ को परिभाषित करती है। सर्वोच्च न्यायालय ने रमेश कुमार बनाम छत्तीसगढ़ राज्य के मामले में कहा है कि उकसाने का अर्थ किसी कार्य को करने के लिए प्रेरित करना, आगे बढ़ाना या मजबूर करना है। भादंसं की धारा 107 और धारा 306 के सह-संबंध पर न्यायालयों द्वारा बार-बार चर्चा की गई है। सर्वोच्च न्यायालय ने एसएस छेना बनाम विजय कुमार महाजन और अन्य, एसएलपी 2009 के मामले में कहा है कि उकसाने में जान-बूझकर किसी व्यक्ति को कुछ करने में सहायता/मजबूर करने की एक मानसिक प्रक्रिया शामिल है। अभियुक्त की स्पष्ट मनःस्थिति के बिना, धारा 306 भादसं के तहत दोष सिद्धि को कायम नहीं रखा जा सकता है। इसके लिए एक सक्रिय या प्रत्यक्ष कृत्य की भी आवश्यकता होती है, जिसके कारण मृतक को आत्महत्या करने के अलावा कोई विकल्प न दिखाई दे। उदाहरण के तौर पर कोई कर्मचारी अपने अधिकारी के पास अवकाश मांगने जाता है और अधिकारी काम की अधिकता के कारण अवकाश देने से मना कर देता है। जिस पर वह कर्मचारी आत्महत्या कर लेता है तो इसे आत्महत्या के लिये उकसाना नहीं माना जाना चाहिए।
कई बार आत्महत्या करने वाला व्यक्ति ऑडियो, वीडियो संदेश या सुसाइड नोट के माध्यम से आत्महत्या के लिए जिम्मेदार को उल्लेखित करता है। परन्तु एक प्रश्न हमेशा बहस का विषय रहता है कि क्या केवल सुसाइड नोट में किसी व्यक्ति का नाम उल्लेखित होने से उस व्यक्ति को दोषी मानना चाहिए?
यह सच है कि सुसाइड नोट जांच एजेंसी को सही दिशा तय करने में बहुत मदद करता है लेकिन यह एकमात्र ठोस एवं निर्णायक सबूत नहीं माना जाना चाहिए। पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने एआर माधव राव बनाम हरियाणा राज्य मामले में कहा है कि केवल सुसाइड नोट में किसी व्यक्ति का नाम होने से वह धारा 306 के तहत अपराधी नहीं है। सुसाइड नोट के साथ अन्य सम्बन्धित परिस्थितियों का विश्लेषण करने तथा यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि पीड़ित ने आत्महत्या उकसावे के कृत्य की वजह से ही की है।
आत्महत्या के लिए उकसाने के मामले जांच अधिकारियों के लिए बड़ी चुनौतियां पेश करते हैं, क्योंकि इनमें अक्सर जटिल भावनात्मक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक कारक शामिल होते हैं। मृतक की मानसिक स्थिति व उसके और कथित उकसाने वाले के बीच भावनात्मक गतिशीलता को समझना आवश्यक है। ऐसे मामलों में मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे जांच को अधिक जटिल बनाते हैं। कुछ मामलों में भावनात्मक प्रभाव या मौखिक दबाव की अप्रत्यक्ष/अस्पष्ट प्रकृति के कारण उकसावे के ठोस सबूत प्राप्त करना मुश्किल हो जाता है। आत्महत्या करने वाले के परिजन जांचकर्ता पर आरोपी को गिरफ्तार करने का निरन्तर दबाव बनाते हैं।
उक्त चुनौतियों के चलते इस तरह के मामलों में दोषसिद्धि दर काफी कम रहती है। एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार भारत में धारा 306 के अन्तर्गत दर्ज मामलों में दोषसिद्धि दर, वर्ष 2020 में 21.8 प्रतिशत तथा 2021 में 22.6 प्रतिशत रही है, जो बहुत कम है।
अतः जांच अधिकारी को ऐसे मामलों की जटिलताओं को प्रभावी ढंग से हल करने के लिए फोरेंसिक मनोवैज्ञानिक का सहयोग भी लेना आवश्यक है। यह स्थापित करना बेहद आवश्यक है कि मृतक द्वारा स्वयं इस कृत्य को अंजाम दिया गया है या उसकी हत्या करके इसे आत्महत्या का रूप दिया गया है। इसके लिए व्यापक शव परीक्षण आवश्यक है। पीड़ित के परिजनों, दोस्तों, सहकर्मियों से पूछताछ करना आवश्यक है। जैसे-जैसे आत्महत्या के मामले बढ़ेंगे वैसे-वैसे धारा 306 के अंतर्गत दर्ज होने वाले मुकदमों में भी बढ़ोतरी होगी। अतः आवश्यक है कि इस तरह के मामलों की जांच संपूर्ण, निष्पक्ष और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से की जाए।

( लेखक हरियाणा काडर के सीनियर आई पी एस अधिकारी हैं)

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