तरक्की की दौड़ में पिछड़े वंचितों की हो फिक्र
भारत ने अपनी अभूतपूर्व तरक्की से पूरी दुनिया को चौंकाया है। रिजर्व बैंक ने विकास दर का अनुमान 7.6 प्रतिशत लगाया था और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने 6.8 प्रतिशत। लेकिन राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय के जो आंकड़े सामने आए हैं, वे इससे कहीं अधिक हैं। हालिया अंतर्राष्ट्रीय सर्वे बताता है कि भारतीयों को अपना भविष्य सुरक्षित होने का भरोसा है। लेकिन जब वैश्विक संस्थाएं कहती हैं कि देश में खरबपतियों की संख्या अत्यधिक बढ़ी है मगर गरीबों की हालत में कोई सुधार नहीं आया तो कई सवाल जन्म लेते हैं। ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत की स्थिति स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली और शिक्षा के पिछड़ेपन पर तो स्वदेशी संस्था ‘असर’ में भी रिपोर्ट परेशान करने वाली है। दरअसल, डिजिटलीकरण व कृत्रिम मेधा में तरक्की के दावों के बीच भारतीय युवा वर्ग के शैक्षिक स्तर में गिरावट चिंता बढ़ाने वाली है।
यही वजह है कि बेरोजगारों की संख्या में कमी नहीं आई। वे अनुकम्पा के बल पर जीते नजर आने लगे और जहां नौकरियां बढ़ी थीं, वहां तमाम तरह की विसंगतियां हैं। भारत में अनियमित रोजगार और करोड़ों लोगों का अनिश्चित जीवन बड़ी चुनौती है। विडंबना है कि देश तरक्की की दौड़ में मजदूर, किसान और कामगार नहीं भाग पा रहे। उन्हें महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार से भी जूझना पड़ रहा है। आज भी बड़ी चुनौती बेरोजगारी और महंगाई ही है। तंत्र की विफलता के कारण देश का मूल्यवान श्रमबल पलायन करने के लिए विवश हो रहा है।
अब जब देश में सत्ता की नई पारी शुरू होने जा रही है तो प्राथमिकता देनी होगी कि इकोनॉमिक मॉडल में वे परिवर्तन लाए जाएं जो आम आदमी के जीवन में भी बदलाव लाए। निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित करने के साथ ही बेकारी, महंगाई, और भ्रष्टाचार को भी दूर करने का प्रयास करें। एक संतुलन बनाना पड़ेगा निजी क्षेत्र की तरक्की के साथ-साथ आम और कमजोर लोगों के जीवन स्तर में सुधार के लिये। हमारी जीएसटी का प्रयोग भी सफल रहा है और हमारी टैक्स क्लेक्शन 19 प्रतिशत तक बढ़ी है। यह लाभ आम आदमी से जुड़ी विकास योजनाओं में नजर आए।
निजी क्षेत्र की तरक्की के साथ कम्पनियों का रिकार्ड मुनाफा भी 14 प्रतिशत हो गया, जो पिछले सालों में 10 प्रतिशत था। देश में आठ प्रमुख सेक्टर हैं। इनमें से केवल मैन्युफैक्चरिंग और खनन क्षेत्र में ही यह असाधारण ग्रोथ देखने को मिल रही है। कृषि की विकास दर तो बहुत कम हो गई है। जहां 2022-23 में यह विकास दर 4.7 प्रतिशत थी, वहां 2023-24 में यह 1.4 प्रतिशत रह गई है। ट्रेड, होटल और परिवहन का विकास 2022-23 में 12 प्रतिशत तक हो गया था, अब 2023-24 में 6.4 प्रतिशत रह गया। कहने को ग्रामीण उपभोक्ता मांग बढ़ गई है लेकिन याद रखिए, यह साधारण दो एकड़ की खेती करने वाले आम किसान की नहीं, उस मध्यवर्गीय और धनी किसान की है, जिसे बढ़ती उत्पादकता और अंतर्राष्ट्रीय तनाव के कारण पैदा हुई अधिक कीमतों से लाभ हुआ। भारत में नया उभरता हुआ मध्यवर्ग तो अपनी जेब से बाहर जाकर भी खर्च कर रहा है। भारत की मौद्रिक नीति में महंगाई को नियंत्रित करने के लिए रैपो रेट को बार-बार बढ़ाने की ओर जो कदम उठाए गए, उनके बावजूद मध्यवर्ग ने अपनी ऋण लेने की तत्परता कम नहीं की। महंगे फ्लैटों और महंगी गाड़ियों की मांग उभरकर सामने आ रही है। सरकार ने भी विकास दर बढ़ाने के लिए पूंजीगत निवेश 10 लाख करोड़ रुपये तक बढ़ा दिया, जो उससे पिछले वर्ष से 37 प्रतिशत ज्यादा था। इसके द्वारा हमने देशभर में नई सड़कों और पेयजल हेतु बुनियादी सुविधाएं जुटाईं। इधर अधिक उत्पादकता के कारण चावल, गेहूं जैसे अनाज का बफर स्टॉक भी बढ़ा है। इसके साथ महंगाई को काबू रखने की कोशिश की गई।
दो-तीन वर्ष में भारत के तीसरी वैश्विक आर्थिक शक्ति बनने के दावे किये जा रहे हैं। दावे तो हैं कि देश दो दशक बाद एक विकसित राष्ट्र होगा। अगर हमारी जीडीपी विकास दर इसी तरह गतिमान रही तो शायद हम अपने विकास के लक्ष्य हासिल कर लेंगे।
लेकिन इन आंकड़ों की महक से प्रफुल्लित होने के साथ-साथ हम यह भी याद रखें कि कृषि प्रधान देश भारत में कृषि अपेक्षित तरक्की नहीं कर पाई। भारत में पर्यटन की अकूत संभावनाओं के बावजूद हम पर्यटन विस्तार की कसौटियों पर पूरी तरह से खरे नहीं उतर पाए हैं। इसके साथ यह तरक्की आश्वस्त तो कर सकती है कि आरबीआई ब्रिटेन से 100 टन सोना भारत ले आया, जो देश की आर्थिक संप्रभुता के लिये उत्साहवर्धक खबर है। असल विकास तो तब होगा जब देश की सुप्त सम्पदा का भी उत्पादक और विकासशील उपयोग होना शुरू हो जाएगा। सोने पर जारी किए गए विकास बांड में धनकुबेरों से लेकर आम जनता का निवेश इस दिशा में बहुत बड़ा योगदान दे सकता है। देश का विकास समतामूलक व आर्थिक विषमता को दूर करने वाला होना चाहिए।
लेखक साहित्यकार हैं।