न्याय के हक में
एक बड़ी गलती को सुधारते हुए सुप्रीम कोर्ट ने बिलकिस बानो मामले में उम्रकैद की सजा पाए ग्यारह दोषियों को सजा में छूट देने के गुजरात सरकार के फैसले को रद्द कर दिया है। गुजरात में वर्ष 2002 के दंगों के दौरान गर्भवती बिलकिस के साथ सामूहिक दुराचार और उसके परिवार के सात सदस्यों की हत्या कर दी गई थी। इन जघन्य अपराधों के लिये ग्यारह लोगों को उम्रकैद की सजा दी गई थी। जिन्हें वर्ष 2022 में चौदह साल की सजा पूरी होने पर रिहा कर दिया गया था। दरअसल, गुजरात सरकार ने उम्रकैद की सजा के मामले में अपराधियों को छूट देने वाली 1992 की नीति के आधार पर यह रिहाई की थी, जबकि वर्ष 2014 में नई नीति ने जघन्य अपराधियों की रिहाई पर रोक लगाई थी। यही वजह है कि कोर्ट ने भ्रमित करने का आरोप भी लगाया। साथ ही कोर्ट ने कहा कि राज्य सरकार ने कानून के शासन का उल्लंघन किया है। कोर्ट ने कहा कि गुजरात सरकार को रिहाई देने का अधिकार ही नहीं था क्योंकि निष्पक्ष न्याय के लिये इस मामले में महाराष्ट्र में मुकदमा चला और सजा सुनाई गई। ऐसे में केवल महाराष्ट्र सरकार ही दोषियों की रिहाई का फैसला ले सकती थी। कोर्ट ने उम्रकैद की सजा काटने वाले ग्यारह लोगों को दो सप्ताह में जेल वापस जाने को कहा है। निश्चित रूप से शीर्ष अदालत का फैसला गुजरात सरकार की विश्वसनीयता और निष्पक्षता पर सवाल उठाता है। दरअसल, राज्य सरकार ने शीर्ष अदालत में दलील दी थी कि सजा पाने वाले लोगों ने जेल में 14 साल पूरे कर लिये थे, उनका आचरण अच्छा पाया गया तथा केंद्र सरकार ने समयपूर्व रिहाई के संबंध में सहमति दी थी। हालांकि, सीबीआई ने तर्क दिया था कि अपराध की गंभीरता को देखते हुए दोषियों के साथ कोई रियायत नहीं बरती जानी चाहिए। लेकिन इसके बावजूद उन्हें रिहा कर दिया गया था। इतना ही नहीं, गोधरा उप-जेल से बाहर निकलने के बाद दोषियों का माला पहनाकर अभिनंदन तक किया गया था।
दरअसल, उम्रकैद की सजा पाए लोगों को समय से पहले रिहा करने के खिलाफ पीड़िता ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी। आखिरकार उसे न्याय मिला, बल्कि इससे खुद सर्वोच्च न्यायालय की गरिमा फिर स्थापित हुई। समाज में व्याप्त अन्याय के खिलाफ न्याय की उम्मीद से लोग अदालतों का दरवाजा खटखटाते हैं। निस्संदेह, इस मामले में गठित खंडपीठ ने सही मायनों में कानून के शासन को ही प्रतिष्ठा दी है। उसने शीर्ष अदालत के मई, 2022 में दिये गए फैसले को भी पलटा है, जिसमें गुजरात सरकार के छूट देने के अधिकार को मान्यता दी गई थी। यह सामान्य विवेक की बात है कि तमाम दलीलों के बावजूद सामूहिक बलात्कार व हत्या जैसे जघन्य अपराधों के दोषियों को समय से पहले रिहाई नहीं दी जानी चाहिए। रिहाई के फैसले ने राज्य सरकार के कल्याणकारी स्वरूप व निष्पक्षता पर भी सवाल उठाए। आरोप है कि राज्य सरकार ने जेल में रहने के दौरान भी दोषियों को लंबे-लंबे समय के लिये पेरोल पर बाहर आने की इजाजत दी थी। दरअसल, ऐसे मामलों में राज्य सरकार के विवेक की भी परीक्षा होती है कि उसके किसी निर्णय से पीड़ित पक्ष आहत न हो। सही मायनों में न्याय की प्रकृति का भी सम्मान किया जाना चाहिए। राज्य सरकार को उन भयावह स्थितियों व पीड़िता की पीड़ा का भी अहसास होना चाहिए। यह राज्य सरकार की कल्याणकारी रीतियों-नीतियों की भी परीक्षा थी। वहीं कोर्ट ने अदालत को गुमराह करने और गलत तथ्य पेश करने का आरोप भी राज्य सरकार पर लगाया। बहरहाल, अब दोषी दो हफ्ते के भीतर आत्मसमर्पण करेंगे और पूरी सजा होने तक जेल में ही रहेंगे। निस्संदेह, शीर्ष अदालत के फैसले से जहां रिहाई के अधिकार के प्रश्न का जवाब मिला, वहीं पीडि़ता को न्याय पाने के हक की भी पुष्टि हुई। पीड़िता के अधिकार को महत्वपूर्ण मानने से सही मायनों में उसे न्याय मिल पाया। बहरहाल, देश में कानून के राज को प्रतिष्ठा देकर न्यायालय ने एक आदर्श मार्गदर्शक की भूमिका का भी निर्वहन किया है।