महिलाओं की राजनीतिक उदासीनता के निहितार्थ
महिला आरक्षण बिल यानी ‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम’ को हाल ही में राष्ट्रपति की मंजूरी मिल गई। इस कानून के लागू होने पर लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण मिलेगा। लैंगिक समानता के लिए उठाया गया यह कदम स्वागतयोग्य है। राजनीतिक स्तर पर महिलाओं को समानता के उच्चतम पायदान पर खड़े करने की पहल विगत कई दशकों से की जा रही थी परंतु तमाम उलझनों और ऊहापोह के बीच इसे आने में इतना लंबा समय लग गया। खैर, देर से आए दुरुस्त आए। परंतु यक्ष प्रश्न यह है कि क्या महिलाओं का राजनीतिक पदों को प्राप्त करना सहज होगा? क्या देश की आम महिलाएं इसका लाभ ले पाएंगी या फिर राजनीतिक परिवारों की महिलाओं तक ही यह सीमित होकर रह जाएगा? क्या विधायक पति, भाई या पिता सत्ता पर अब परोक्ष रूप से काबिज होंगे? इन प्रश्नों ने अपने उत्तरों को ढूंढ़ने की कवायद आरंभ कर दी है।
वर्ष 2017 में हिलेरी क्लिंटन ने अपनी किताब ‘व्हाट हैपेंड’ में लिखा ‘यह पारंपरिक सोच नहीं है कि महिलाएं नेतृत्व करें या राजनीति के दांव पेंच में शामिल हों। यह न तो पहले सामान्य था और न ही आज... इसलिए जब भी अगर ऐसा होता है तो यह सही प्रतीत नहीं होता। लोगों ने हमेशा इस तरह की भावनाओं के आधार पर मत दिया है।’ हिलेरी क्लिंटन ने समाज के उस चेहरे को उजागर किया है जहां आधुनिकता और समानता के तमाम दावों के बीच महिलाओं की राजनीति में अस्वीकार्यता है। व्यावहारिक समानता के बावजूद अप्रत्यक्ष सामाजिक-राजनीतिक ढांचे महिलाओं को राजनीति में भागीदार बनने से रोकते हैं।
अंतर संसदीय संघ की ओर से कराए गए सर्वे इन ‘इक्वलिटी इन पॉलिटिक्स’ में पाया गया कि सामाजिक रीति-रिवाजों के अलावा आर्थिक क्षमता और राजनीतिक दलों की संरचना भी महिलाओं के लिए बाधक है। अब प्रश्न यह उठता है कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था महिलाओं को नेतृत्वशील पदों पर क्यों नहीं देखना चाहती? इसका उत्तर मुश्किल नहीं है ‘राजनीति’ सत्ता और शक्ति का केंद्र है। वह प्रभाव और निर्णय क्षमता की आधारभूमि है जो कि पुरुषत्व भाव की छद्म तुष्टि का आधार बनती है। सत्ता को पुरुषत्व से जोड़कर देखने की मानसिकता इतनी गहरी जड़ें जमाए हुए है कि विश्व की कोई भी सामाजिक व्यवस्था, चाहे उसका स्वरूप विकसित हो या विकासशील, महिलाओं का राजनीति में प्रवेश स्वीकार नहीं करती। और किंचित जो महिलाएं इस ओर कदम बढ़ाती हैं उन्हें रोकने के लिए ‘हिंसा’ को, चुनावी चक्र में विभिन्न तरीकों से लक्षित और विनाशकारी उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।
एक अध्ययन के मुताबिक विश्व भर में 35500 संसदीय सीटों (156 देशों) में महिलाओं की उपस्थिति मात्र 26.1 प्रतिशत है। रिपोर्ट यह भी बताती है कि 156 देशों में से 81 में राजनीतिक उच्च पदस्थ स्थानों में महिलाएं नहीं रही हैं। स्वीडन, स्पेन, नीदरलैंड और अमेरिका जैसे लिंग समानता के संबंध में अपेक्षाकृत प्रगतिशील माने जाने वाले देश भी इसमें शामिल हैं। इस सत्य को विश्व की तमाम संस्थाएं स्वीकार करती हैं कि महिलाओं की पूर्ण और प्रभावी राजनीतिक भागीदारी मानवाधिकार, समावेशी विकास और सतत विकास का मामला है। निर्णय लेने और राजनीतिक भागीदारी के सभी स्तरों पर पुरुषों के साथ समान शर्तों पर महिलाओं की सक्रिय भागीदारी समानता, शांति और लोकतंत्र की उपलब्धि और निर्णय लेने की प्रक्रिया में उनके दृष्टिकोण और अनुभवों को शामिल करने के लिए आवश्यक है।
रेक्यिवेक इंडेक्स 20-21’ के ‘सत्ता में पदों के लिए उपयुक्तता पुरुष और स्त्री के संबंध में दृष्टिकोण’ अध्ययन में सम्मिलित जी 7 देशों के बीस हजार वयस्कों की, महिलाओं के राजनीति में नेतृत्व को लेकर जो विचारधाराएं हैं, वह अचंभित करती हैं। हैरान करने वाला तथ्य तो यह है कि जिस युवा पीढ़ी (18-34) को आधुनिक विचारों का पैरोकार समझा जाता है वह युवा पीढ़ी महिलाओं के राजनीति में प्रभावशील नेतृत्व को लेकर संकुचित विचारधारा रखती है और यह मानती है कि सत्ता के गलियारे महिलाओं के लिए नहीं बने हैं। इन विचारधाराओं के लिए युवाओं को भी पूर्ण रूप से दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
दरअसल संपूर्ण सामाजिक व्यवस्था ‘समाजीकरण’ की प्रक्रिया के अनुरूप सुनिश्चित होती है। समाजीकरण वह प्रक्रिया है जहां बच्चे को उसके जन्म के पश्चात समाज की व्यवस्थाओं के अनुरूप रहना सिखाया जाता है और यह प्रक्रिया परिवार से आरंभ होकर स्कूल, रिश्तेदारों और विभिन्न संस्थाओं द्वारा सुनिश्चित होती है। ‘सत्ता’, ‘राजनीति’ यह शब्द समाजीकरण की प्रक्रिया में महिलाओं को इंगित करते ही नहीं इसीलिए वर्तमान पीढ़ी भी यह मानकर चलती है कि राजनीति महिलाओं का विषय नहीं है।
इलिनॉइस के इवांस्टन में नॉर्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी की मनोवैज्ञानिक एलिस ईमल के अनुसार ‘ऐसी मान्यताएं हैरान करने वाली नहीं हैं क्योंकि समाज महिलाओं की निर्णय क्षमता और आधिकारिता पर विश्वास नहीं करता है।’ राजनीति के प्रथम स्तर पर महिलाओं का आरक्षण यकीनन भारत की राजनीतिक तस्वीर को बदलेगा परंतु इसमें कतई संदेह नहीं है कि आने वाले दो-तीन दशकों में समाज को महिलाओं के राजनीतिक समाजीकरण से परिचित होना होगा जो कि सहज नहीं है। यह प्रश्न उठना भी स्वाभाविक है कि अगर 1994 में 73वें और 74वें संविधान संशोधन के माध्यम से राजनीति के निचले पायदान पर महिलाओं को आरक्षण नहीं मिलता तो क्या वह अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर पाती?
दरअसल, वैधानिक तथा राजनीतिक स्तर पर जब भी बड़े बदलाव किए जाते हैं तो सामाजिक ढांचे में वह सहज ढल नहीं पाते। अनेक बार दबाव ही सामाजिक बदलाव की स्वीकार्यता का कारण बनता है। ठीक इसी तरह ‘नारी शक्ति वंदन’ अधिनियम को समाज को अंगीकार करने में कुछ दशकों का समय लग सकता है। महिलाओं के लिए जहां एक ओर पुरुष सत्तात्मक व्यवस्था के समक्ष खड़े होकर लड़ने की चुनौती है तो वहीं दूसरी ओर उनके भीतर आत्मबोध का अभाव है, जिसके चलते वे स्वयं को ही पीछे धकेल लेती हैं।
एक अध्ययन के मुताबिक, पुरुष अवसरों को अपनी भविष्य की क्षमता के हिसाब से आंकते हैं, वहीं महिलाएं इस हिसाब से कि उन्होंने पूर्व में क्या उपलब्धियां अर्जित की हैं। इस सोच के चलते बहुत-सी महिलाएं ठहर जाती हैं या फिर नेतृत्व की भूमिका में अपने प्रयासों में देर कर देती हैं। इसके अलावा पुरुष सत्तात्मक व्यवस्था में कुछ ऐसी भी चुनौतियां हैं जिसका सामना पुरुषों की अपेक्षाकृत महिलाओं को अधिक करना पड़ता है, धन जुटाना इन्हीं में से एक है। बहुत-सी महिलाएं जो पुरुषों के बराबर धन नहीं कमाती या फिर जिनकी आय का कोई स्रोत नहीं है, उनके लिए धन जुटाना चुनौतीपूर्ण हो सकता है।
राजनीतिक नेतृत्व प्राप्त करने के लिए राजनीतिक जागरूकता का होना आवश्यक है, इसके बगैर राजनीतिक विकास संभव नहीं। बीते दशकों में महिलाएं राजनीतिक विषयों पर गंभीर चर्चा कर रही हैं ऐसा नहीं है परंतु वे ‘विकास’ जैसे अहम बिंदुओं और अपने अधिकारों के प्रति पूर्णतः अनभिज्ञ भी नहीं हैं। देश के राजनीतिक परिदृश्य में महिलाओं की मौजूदगी शुरुआत से कम बेशक रही है परंतु सच है कि महिलाओं में राजनीतिक चेतना का विकास तेजी से हो रहा है। इस बात का प्रमाण हैं पिछले कुछ चुनावी आंकड़े। महिलाएं अब यह जानने का प्रयास करने लगी हैं कि उन्हें किसे चुनना है, कौन उनके हितों के प्रति सचेत है, जो नेता सीधे तौर पर उनके हितों से जुड़ा हुआ है वह उन्हें ही वोट देना चाहती हैं।
विभिन्न अध्ययनों से भी यह बात सामने आई है कि महिलाएं पहले की अपेक्षा कहीं अधिक मुखर हुई हैं जो कि महिलाओं की सकारात्मक राजनीतिक यात्रा की पुष्टि करती है और सुखद भविष्य की भी।
लेखिका समाजशास्त्री एवं स्तंभकार हैं।