निस्तारण की व्यावहारिक योजना पर हो अमल
ज्ञानेन्द्र रावत
पराली जलाने से हुए प्रदूषण से निपटने के दावे हर साल किए जाते हैं, लेकिन आज तक इस समस्या का स्थायी समाधान नहीं निकल सका है। यह समस्या हर साल और विकराल होती चली जा रही है। सरकारें इस बाबत तब होश में आती हैं जब इस समस्या के चलते वायु प्रदूषण में बेतहाशा बढ़ोतरी से लोगों का सांस लेना भी दूभर हो जाता है। पराली जलाने की घटनाओं में हुई कई गुणा बढ़ोतरी हालात की विकरालता का जीता-जागता सबूत है। धान की कटाई के रफ्तार पकड़ने के साथ ही पराली जलाने की घटनाओं में दैनंदिन होती बढ़ोतरी को खतरा माना जाना चाहिए।
पराली जलाने से हर साल राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली, उत्तर प्रदेश का पश्चिमी अंचल, हरियाणा, पंजाब और किसी हद तक राजस्थान का सीमांत क्षेत्र सितम्बर से दिसम्बर के आखिर तक भयावह स्तर तक प्रभावित रहता है। ये महीने इन क्षेत्र के लोगों के लिए मुसीबत बनकर आते हैं। इन राज्यों की सरकारों द्वारा इसे रोकने की दिशा में किए गये सारे प्रयास, अभियान और किसानों को जागरूक करने के सभी कदम बेमानी साबित हो जाते हैं।
विडम्बना यह है कि यह सब तब होता है जबकि पराली जलाने पर पाबंदी है। सुप्रीम कोर्ट भी इस बाबत गंभीर चिंता जाहिर कर चुकी है कि यह कैसा प्रबंधन है कि प्रतिबंध के बावजूद राज्यों में पराली जलायी जा रही है। हालात इस बात के सबूत हैं कि दिल्ली एनसीआर में वायु गुणवत्ता प्रबंधन अधिनियम की अवहेलना हुई है। वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग इस पर नियंत्रण कायम करने में नाकाम रहा है। क्योंकि एक भी ऐसी मिसाल नहीं मिली है कि आयोग ने वायु गुणवत्ता प्रबंधन अधिनियम के तहत एक भी दंडात्मक कार्रवाई की हो। हालात तो यही इशारा करते हैं कि पराली जलाने के खिलाफ निषेधात्मक निर्देश केवल कागजों तक ही सीमित रहे हैं।
गौरतलब है कि राजधानी क्षेत्र में दुनिया के दस फीसदी अस्थमा से पीड़ित लोग रहते हैं। नतीजतन पहले से ही अस्थमा से परेशान लोगों के लिए बढ़ता वायु प्रदूषण जानलेवा बन जाता है। वैसे भी मौसम में आ रहे बदलाव के चलते प्रदूषण बढ़ रहा है। फिर वहीं, पराली जलाये जाने से पीएम के स्तर में बढ़ोतरी चिंताजनक है। बीते 5 सालों के आंकड़े बताते हैं कि पराली जलाने के 75 फीसदी मामले अकेले पंजाब में ही हुए हैं। इस बार पंजाब में धान की कटाई के बाद 200 लाख टन पराली बचेगी, जबकि राज्य का लक्ष्य 19.52 लाख टन पराली के प्रबंधन का ही है। जाहिर है शेष पराली प्रबंधन के अभाव में जलाई ही जायेगी।
ऐसे हालात में एसोचेम का कहना सही है कि स्वच्छ पर्यावरण सुनिश्चित करना केन्द्र, राज्य, समाज और लोगों की संयुक्त जिम्मेदारी है। लेकिन इसमें हम विफल रहे हैं। खासतौर पर जब सर्दियों में आसमान धुंध और विषाक्त गैसों से घिरा होता है, के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे साल के लिए वायु प्रदूषण नियंत्रित करने के लिए एक समन्वित कार्य योजना बनायी जाये।
गौरतलब है कि बीते साल दिल्ली हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की गयी थी, जिसमें कहा गया था कि पड़ोसी राज्यों के किसानों द्वारा पराली जलाये जाने से हर साल राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में इस दौरान वायु प्रदूषण का स्तर बढ़ जाता है। इस पर लगाम लगाई जाये और पराली से कंपोस्ट खाद बनाये जाने का आदेश दिया जाये। ऐसा करने से जहां खाद बनाने से बढ़ते प्रदूषण पर लगाम लगेगी, वहीं दूसरी ओर, किसान इस खाद का उपयोग कर बेहतर और रसायनविहीन पैदावार हासिल कर सकेंगे। चूंकि, मनरेगा पंचायत स्तर की सरकारी योजना है, इसलिए खाद बनाने की प्रक्रिया को मनरेगा से जोड़ा जाये। लेकिन उस पर कोई ध्यान ही नहीं दिया गया।
बेशक, वायु प्रदूषण में पराली की अहम भूमिका है, लेकिन सड़कों की धूल, फैले कूड़े, वाहनों की धूल और बायोमास का भी नकारात्मक रोल होना है। इससे वातावरण में ज़हर के कॉकटेल का निर्माण होता है। वातावरण में सबसे अधिक घातक अजैविक एयरोसेल का निर्माण, बिजलीघरों, उद्योगों, ट्रैफिक से निकलने वाले सल्फ्यूरिक एसिड और नाइट्रोजन आक्साइड तथा कृषि कार्य से पैदा होने वाले अमोनिया के मेल से होता है। दरअसल, 23 फीसदी वायु प्रदूषण की वजह यह काॅकटेल ही है।
दिल्ली में वायु प्रदूषण, धुंध का 20 फीसदी उत्सर्जन दिल्ली के वाहनों से, 60 फीसदी दिल्ली के बाहर के वाहनों से तथा 20 फीसदी के आसपास बायोमास जलाने से होता है।
आस्ट्रिया स्थित इंटरनेशनल इंस्टिट्यूट फार एप्लायड सिस्टम एनालीसिस और नीरी के शोध के अनुसार दिल्ली में प्रदूषित हवा के लिए 40 फीसदी दिल्लीवासी और 60 फीसदी पड़ोसी राज्य जिम्मेदार हैं। डब्ल्यूएचओ शोध-अध्ययन के अनुसार देश की हवा दिनोंदिन ज़हरीली होती जा रही है। इसलिए पराली जलाने पर किसानों को कोसने से कुछ नहीं होने वाला। इसके लिए सरकारी प्रशासनिक तंत्र की निष्क्रियता पूरी तरह जिम्मेदार है। वायु प्रदूषण की समस्या किसी युद्ध की विभीषिका की आशंका से कम नहीं है। ज्ञाानेन्द्र रावत
पराली जलाने से हुए प्रदूषण से निपटने के दावे हर साल किए जाते हैं, लेकिन आज तक इस समस्या का स्थायी समाधान नहीं निकल सका है। यह समस्या हर साल और विकराल होती चली जा रही है। सरकारें इस बाबत तब होश में आती हैं जब इस समस्या के चलते वायु प्रदूषण में बेतहाशा बढ़ोतरी से लोगों का सांस लेना भी दूभर हो जाता है। पराली जलाने की घटनाओं में हुई कई गुणा बढ़ोतरी हालात की विकरालता का जीता-जागता सबूत है। धान की कटाई के रफ्तार पकड़ने के साथ ही पराली जलाने की घटनाओं में दैनंदिन होती बढ़ोतरी को खतरा माना जाना चाहिए।
पराली जलाने से हर साल राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली, उत्तर प्रदेश का पश्चिमी अंचल, हरियाणा, पंजाब और किसी हद तक राजस्थान का सीमांत क्षेत्र सितम्बर से दिसम्बर के आखिर तक भयावह स्तर तक प्रभावित रहता है। ये महीने इन क्षेत्र के लोगों के लिए मुसीबत बनकर आते हैं। इन राज्यों की सरकारों द्वारा इसे रोकने की दिशा में किए गये सारे प्रयास, अभियान और किसानों को जागरूक करने के सभी कदम बेमानी साबित हो जाते हैं।
विडम्बना यह है कि यह सब तब होता है जबकि पराली जलाने पर पाबंदी है। सुप्रीम कोर्ट भी इस बाबत गंभीर चिंता जाहिर कर चुकी है कि यह कैसा प्रबंधन है कि प्रतिबंध के बावजूद राज्यों में पराली जलायी जा रही है। हालात इस बात के सबूत हैं कि दिल्ली एनसीआर में वायु गुणवत्ता प्रबंधन अधिनियम की अवहेलना हुई है। वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग इस पर नियंत्रण कायम करने में नाकाम रहा है। क्योंकि एक भी ऐसी मिसाल नहीं मिली है कि आयोग ने वायु गुणवत्ता प्रबंधन अधिनियम के तहत एक भी दंडात्मक कार्रवाई की हो। हालात तो यही इशारा करते हैं कि पराली जलाने के खिलाफ निषेधात्मक निर्देश केवल कागजों तक ही सीमित रहे हैं।
गौरतलब है कि राजधानी क्षेत्र में दुनिया के दस फीसदी अस्थमा से पीड़ित लोग रहते हैं। नतीजतन पहले से ही अस्थमा से परेशान लोगों के लिए बढ़ता वायु प्रदूषण जानलेवा बन जाता है। वैसे भी मौसम में आ रहे बदलाव के चलते प्रदूषण बढ़ रहा है। फिर वहीं, पराली जलाये जाने से पीएम के स्तर में बढ़ोतरी चिंताजनक है। बीते 5 सालों के आंकड़े बताते हैं कि पराली जलाने के 75 फीसदी मामले अकेले पंजाब में ही हुए हैं। इस बार पंजाब में धान की कटाई के बाद 200 लाख टन पराली बचेगी, जबकि राज्य का लक्ष्य 19.52 लाख टन पराली के प्रबंधन का ही है। जाहिर है शेष पराली प्रबंधन के अभाव में जलाई ही जायेगी।
ऐसे हालात में एसोचेम का कहना सही है कि स्वच्छ पर्यावरण सुनिश्चित करना केन्द्र, राज्य, समाज और लोगों की संयुक्त जिम्मेदारी है। लेकिन इसमें हम विफल रहे हैं। खासतौर पर जब सर्दियों में आसमान धुंध और विषाक्त गैसों से घिरा होता है, के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे साल के लिए वायु प्रदूषण नियंत्रित करने के लिए एक समन्वित कार्य योजना बनायी जाये।
गौरतलब है कि बीते साल दिल्ली हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की गयी थी, जिसमें कहा गया था कि पड़ोसी राज्यों के किसानों द्वारा पराली जलाये जाने से हर साल राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में इस दौरान वायु प्रदूषण का स्तर बढ़ जाता है। इस पर लगाम लगाई जाये और पराली से कंपोस्ट खाद बनाये जाने का आदेश दिया जाये। ऐसा करने से जहां खाद बनाने से बढ़ते प्रदूषण पर लगाम लगेगी, वहीं दूसरी ओर, किसान इस खाद का उपयोग कर बेहतर और रसायनविहीन पैदावार हासिल कर सकेंगे। चूंकि, मनरेगा पंचायत स्तर की सरकारी योजना है, इसलिए खाद बनाने की प्रक्रिया को मनरेगा से जोड़ा जाये। लेकिन उस पर कोई ध्यान ही नहीं दिया गया।
बेशक, वायु प्रदूषण में पराली की अहम भूमिका है, लेकिन सड़कों की धूल, फैले कूड़े, वाहनों की धूल और बायोमास का भी नकारात्मक रोल होना है। इससे वातावरण में ज़हर के कॉकटेल का निर्माण होता है। वातावरण में सबसे अधिक घातक अजैविक एयरोसेल का निर्माण, बिजलीघरों, उद्योगों, ट्रैफिक से निकलने वाले सल्फ्यूरिक एसिड और नाइट्रोजन आक्साइड तथा कृषि कार्य से पैदा होने वाले अमोनिया के मेल से होता है। दरअसल, 23 फीसदी वायु प्रदूषण की वजह यह काॅकटेल ही है।
दिल्ली में वायु प्रदूषण, धुंध का 20 फीसदी उत्सर्जन दिल्ली के वाहनों से, 60 फीसदी दिल्ली के बाहर के वाहनों से तथा 20 फीसदी के आसपास बायोमास जलाने से होता है।
आस्ट्रिया स्थित इंटरनेशनल इंस्टिट्यूट फार एप्लायड सिस्टम एनालीसिस और नीरी के शोध के अनुसार दिल्ली में प्रदूषित हवा के लिए 40 फीसदी दिल्लीवासी और 60 फीसदी पड़ोसी राज्य जिम्मेदार हैं। डब्ल्यूएचओ शोध-अध्ययन के अनुसार देश की हवा दिनोंदिन ज़हरीली होती जा रही है। इसलिए पराली जलाने पर किसानों को कोसने से कुछ नहीं होने वाला। इसके लिए सरकारी प्रशासनिक तंत्र की निष्क्रियता पूरी तरह जिम्मेदार है। वायु प्रदूषण की समस्या किसी युद्ध की विभीषिका की आशंका से कम नहीं है।