For the best experience, open
https://m.dainiktribuneonline.com
on your mobile browser.

शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र की अनदेखी

07:42 AM Jul 29, 2024 IST
शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र की अनदेखी
Advertisement

ज्योति मल्होत्रा

शुक्रवार के दिन कारगिल विजय स्मृति स्मारक पर आयोजित समारोह के टेलीकास्ट में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को खड़े देखा, जैतूनी हरे रंग के बंद-गला कोट और हल्के भूरे लेंस का रंगीन चश्मा लगाकर खूब जंच रहे थे, अपने संबोधन में उन्होंने पाकिस्तान द्वारा सीमा पारीय आतंकवाद को निरंतर शह और मदद देते रहने के लिए लताड़ा– कारगिल युद्ध हुए 25 साल गुजर गए, स्पष्टतः कुछ चीजें बिल्कुल नहीं बदलीं।
लेकिन यहां चंडीगढ़ में, बजट दस्तावेज बांचने का काम हमारा इंतजार कर रहा था। एक बारगी लगा कि ‘स्वास्थ्य’ और ‘शिक्षा’ वाले हिस्से इससे गायब हैं। हो सकता है, रिसकर उस भाग में चले गए हों जो शेयर मार्केट में निवेश पर अर्जित मुनाफे पर कर की बाबत है– वह एक कैटेगरी, जिस पर हफ्ते के शुरू में पेश बजट के बाद से भारतीय शेयर मार्केट के दीवानों ने सावधानी से नजर रखी। गौरतलब है कि जिस क्षण सुश्री सीतारमण ने कर लगाने की बात कही, बाज़ार की प्रतिक्रिया कुछ गुस्से भरी दिखी। लेकिन हर कोई जानता है कि मंगलगिरी साड़ी पहने शांत छवि वाली निर्मला दृढ़ इच्छाशक्ति संपन्न महिला हैं, वे वहां पहुंच रही हैं, जहां कोई फरिश्ता और यहां तक कि पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम भी जाने का साहस न करते। उन पर ‘रोलबैक वित्त मंत्री’ का ठप्पा लगने से रहा।
इससे हमारे लिए एक अन्य सवाल उठ खड़ा होता है ः अपना पुनर्गठन, परिवर्तन और आधुनिकीकरण किए जाने को तरस रहे स्वास्थ्य और शिक्षा क्षेत्र को निर्मला सीतारमण ने क्योंकर नज़रअंदाज़ किया? पुरुष वर्चस्व वाली राजनीतिक पार्टी में इतने उच्च स्तर पर पहुंचना, उससे पहले जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी से शिक्षा प्राप्त निर्मला ने भूसे से गेहूं के दाने अलग करना या फिर बुरे और अच्छे व्यवहार बीच फर्क करने की कला अच्छी तरह सीख ली थी (मसलन, अपनी पूर्व मंत्रिमंडल सहयोगी स्मृति ईरानी की तरह वे अपने मातहत अफसरों पर फाइलें फेंककर नहीं मारती, जैसा कि मानव संसाधन मंत्री रहते हुए उन्होंने कथित तौर पर किया)। इसके अधिक, वे डाटा की कद्र है, भले ही यह साफ तौर पर छिपाने की गर्ज से हो।
उदाहरण के लिए उन्हें मालूम है कि बजटीय अनुमान और संशोधित अनुमान के बीच तुलना करना नितांत गलत है, क्योंकि ये दोनों अलग चीज़ें हैं –पहले वाला, अनुमानित खर्च की बाबत है तो दूसरा वास्तव में किए जाने वाले खर्च के बारे में है। इसलिए, पिछले साल के बजटीय अनुमान और मौजूदा साल के संशोधित अनुमानों की तुलना के आधार पर यह कहना एकदम गलत है कि मौजूदा वित्तीय वर्ष में स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए रखे धन में 12 फीसदी इजाफा किया गया है। यह सेब की तुलना संतरे से किए जाने जैसा है।
सही चीज़ होती, मौजूदा और पिछले साल के बजटीय अनुमानों के बीच तुलना करना। पिछले साल के लिए यह 89,155 करोड़ रुपये था जो मामूली बढ़ोतरी (1,803.63 करोड़) अर्थात 1.98 फीसदी वृद्धि के साथ इस साल 90,958.63 करोड़ रुपये किया गया। इसके अलावा, जहां राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के लिए खर्च में बढ़ोतरी शोचनीय 1.16 फीसदी है वहीं प्रधानमंत्री जनऔषधि योजना में इजाफा महज 1.4 प्रतिशत है। जबकि इसके लाभार्थी वे 55 करोड़ लोग हैं, जिनका हिस्सा कुल जनसंख्या का लगभग 40 फीसदी है–उपरोक्त वर्णित दोनों योजनाएं वर्ष 2018 में नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा शुरू की गयी आयुष्मान भारत नामक अग्रणी स्वास्थ्य परियोजना का मुख्य अवयव हैं।
तो बजटीय प्रावधान में राशि में की गई इस नगण्य बढ़ोतरी के बूते किस तरह 2025 तक देश से टीबी का खात्मा करने का लक्ष्य पूरा हो पाएगा या सब बच्चों में रोग-प्रतिरोधकता बनाना या फिर लड़कियों एवं महिलाओं में गर्भाशय कैंसर की रोकथाम के लिए एचपीवी वैक्सीन जारी करने का ध्येय कैसे पूरा होगा– जबकि फरवरी माह में पेश अंतरिम बजट में अंतिम हेतु वादा किया गया था?
फिर यहां कोरा सच है। स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए बजटीय खर्च पहले की भांति जीडीपी का महज 1.9 प्रतिशत बना हुआ है, यह राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति-2017 में तय किये गए लक्ष्य यानी 2.5 प्रतिशत वृद्धि से काफी कम है। कोविड-19 महामारी, जिसमें भारत को बहुत जान-माल का भारी नुकसान हुआ (आधिकारिक तौर पर मरने वालों की संख्या 5,32,000 बताई गई) के बाद लगता था कि जरूर इससे कुछ सबक लिए होंगे। इसलिए, सीखने से मोदी सरकार को इंकार क्यों?
शिक्षा क्षेत्र का आलम भी कुछ अलग नहीं है। पिछले साल के लिए बजटीय अनुमान 1,12,899.47 करोड़ रुपये था, जो इस साल मामूली बढ़ोतरी (7,728.4 करोड़) के साथ 1,20,627.87 करोड़ रुपये किया गया। आर्थिक सर्वे के मुताबिक, जीडीपी के अंश के तौर पर शिक्षा के लिए रखा फंड दरअसल 2.8 प्रतिशत से घटकर 2.7 फीसदी होने के साथ वर्ष 2010 के स्तर पर जा पहुंचा है (जबकि यूनेस्को द्वारा तय वैश्विक मानक 4-6 प्रतिशत है)। आपको हैरानी नहीं होनी चाहिए कि चीन अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 3.3 फीसदी शिक्षा क्षेत्र पर लगाता है–दुनिया की बेहतरीन यूनिवर्सिटियों को अपनी शाखाएं चीन में खोलने का वह स्वागत करता है– और तो और अफगानिस्तान तक ने वर्ष 2020 में शिक्षा क्षेत्र के लिए जीडीपी का 2.8 प्रतिशत अंश रखा था (हालांकि तालिबान द्वारा तख्ता पलट के बाद से ऐसा नहीं है), अवश्य ही नयी दिल्ली में कहीं न कहीं कुछ तो गड़बड़ है।
इस सवाल का स्पष्ट उत्तर कि भारत के राजनीतिक वर्ग को क्यों इस बात की परवाह नहीं है कि देश का बच्चा शिक्षित है या नहीं, सेहतमंद है या नहीं– इसका जवाब निजी क्षेत्र के जरिये दिया है। ये दोनों मूलभूत सुविधाएं पाने को लोगों की जेब से होने वाले खर्च में तेजी से बढ़ोतरी हुई है। नए भारत में, यदि आपके पास पैसा है, तो सर्वश्रेष्ठ अस्पताल, स्कूल और कॉलेज वहन कर सकते हैं –लेकिन यदि ऐसा नहीं कर सकते, तो आप दुर्दशा के लिए अभिशप्त हैं।
जिन दो देशों ने इनकी अहमियत को सही ढंग से समझा, उनमें एक था पूर्व सोवियत संघ– जिसका उत्तराधिकारी अब रूस है - और दूसरा है चीन। दोनों की आलोचना वामपंथी राष्ट्र कहकर करना आसान है कि लोकतंत्र में आप बहस कर सकते हैं लेकिन वामपंथी व्यवस्था अधिनायकवादी होती है – मानो जब बात आपके बच्चे के लिए शिक्षा के इंतजाम की आए तो इसे बहाना बनाकर इस्तेमाल कर लो।
तथ्य है कि रूस और चीन ने समझ लिया कि शिक्षित राष्ट्र होने के लिए सब बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देना आवश्यक है, न कि सिर्फ उन्हें जो कुलीन वर्ग से हैं– इसके लिए समूचे देश में आगाज़ एकदम शुरुआती स्तर से करना है यानि प्राथमिक विद्यालयों एवं प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को समुचित धन मुहैया करवाकर। भारत के दक्षिणी राज्यों ने इससे सबक जल्दी ले लिया था– शुरुआत केरल से हुई, जिसने स्वाथि थिरुनल जैसे अपने पूर्व राजाओं के अलावा वामपंथी सरकार के मुख्यमंत्री ईएमएस नम्बूदरीपाद सरकार से सबक लिया, इसने आगे सामाजिक क्षेत्र के लिए फंड मुहैया करवाने के लिए प्रारूप का काम किया, जो आजतक चला आ रहा है।
इसलिए आखिर में, जब तमाम नैतिक उपदेश निपट गए हो, ‘क्यों’ का उत्तर काफी सरल है। हां, शिक्षा और स्वास्थ्य भाजपा के लिए तरजीह नहीं हैं, इसके लिए स्टॉक मार्केट की तरफ ध्यान देना अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह अंदरूनी और विदेशी निवेशकों को भारत में पैसा लगाने का दोस्ताना संकेत है।
सिवाय कुछ और, वही सरल उत्तर है। सच तो यह है कि हम सब दोषी हैं। सत्ताधारी दल और सभी विपक्षी पार्टियां, सब इस में भागीदार हैं – भाजपा, कांग्रेस, समाजवादी दल, डीएमके, एनसीपी, तृणमूल कांग्रेस या कोई भी अन्य राजनीतिक दल। किसी को परवाह नहीं कि शिक्षा और स्वास्थ्य को तरजीह न दिए जाने पर भाजपा को घेरकर तीखे सवाल पूछे– ‘क्योंकि हमें डर है, तब लोग पलटकर हम से भी वही सवाल पूछेंगे। जब हम सत्ता में थे तब क्यों नहीं कुछ कर दिखाया?’
इसलिए ‘हम’ इल्जाम, और अपराधबोध फैलाते हैं। या तो हम सब गलत है या... कोई नहीं। बल्कि हम तो टेलीविज़न पर प्रधानमंत्री को कारगिल पर बड़ी-बड़ी बातें करते देखेंगे या फिर स्टॉक मार्केट पर नज़रें गड़ाए रखेंगे क्योंकि इसका ग्राफ भी ओलम्पिक में मेरे पसंदीदा खिलाड़ी की दिल की धड़कनों जितना ऊपर-नीचे होता है- और हां, ओलम्पिक खेल भी तो शुरू हो चुके हैं।

Advertisement

लेखिका द ट्रिब्यून की प्रधान संपादक हैं।

Advertisement
Advertisement
Advertisement
Advertisement
×