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सकारात्मक रहें तो डर के आगे सचमुच जीत

08:13 AM Mar 21, 2024 IST
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विवेक कुमार
कोई भी डर कितना ही बड़ा क्यों न हो, मगर उस पर जीत पायी जा सकती है, बस उसके लिए हमें कुछ वैज्ञानिक तौर- तरीकों से गुजरना होता है। वैसे डर को लेकर समाज में बहुत गलत धारणाएं फैली हुई हैं। आमतौर पर लोगों का मनोविज्ञान यह है कि डरपोक लोगों को डर ज्यादा लगता है और बहादुर लोग डरते नहीं। यह सही बात नहीं है। डर एक जन्मजात और स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। इसका हमारे हिम्मती या गैरहिम्मती होने से कोई लेना-देना नहीं होता बल्कि अगर कोई व्यक्ति डरता है तो इसका मतलब यह है कि उसके शरीर में स्वाभाविक प्रतिक्रिया हो रही है। लेकिन जैसे हर चीज की एक सीमा होती है, डर की भी एक सीमा होती है। अगर डर उस सीमा के आगे बढ़ जाए तो वह डर नहीं रहता। इसलिए सीमा से आगे बढ़ा हुआ डर खतरनाक होता है और उसके निवारण की जरूरत होती है।

हर भय से छुटकारा संभव

जब भी डर के बारे में सोचें तो यह मानकर चलें कि डर कितना ही बड़ा और जटिल क्यों न हो, उससे छुटकारा पाना संभव है। हम सब बचपन में अंधेरे से डरते हैं, कॉकरोच-छिपकली से डरते हैं। ऊंचाई से भी डरते हैं और ये सिर्फ बच्चों की बात नहीं है, बड़े होने पर भी बहुत लोग इन सब चीजों से डरते हैं। लेकिन अगर इन सभी चीजों को धीरे-धीरे प्रैक्टिस से समझें तो डर दूर हो जाता है। दरअसल डर से हमारी मुलाकात जन्म लेते ही हो जाती है। पैदा होने के बाद किसी भी शिशु के सामने दो डर होते हैं। भूख लगने पर कहीं वह मर तो नहीं जायेगा? इसलिए भूख लगते ही बच्चा जोर-जोर से रोने लगता है। रोना दरअसल उसकी असुरक्षा की अभिव्यक्ति है। इसलिए जब भी उसे भूख लगती है, वह रोने लगता है। लेकिन पेट भरा होने पर नहीं रोता। ऐसे ही बिस्तर गीला हो जाने पर भी रोता है, लेकिन गीले बिस्तर से मां उठा ले तो वह चुप हो जाता है। दरअसल ये सुरक्षातंत्र है। हम जैसे ही अपने सुरक्षातंत्र में पहुंच जाते हैं, डर खत्म हो जाता है।

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डर से कैसे मिले छुटकारा

सीधी सी बात है, डर से छुटकारा वैज्ञानिक तरीके की परवरिश से ही मिलता है। जैसे हम अंधेरे में डरते हैं और अंधेरे में उजाला हो जाए तो डर दूर हो जाता है। ठीक इसी तरह हमारा कमजोर दिल-दिमाग जिन सवालों के जवाब नहीं ढूंढ पाता है, उनसे हमें डर लगता है। इसमें मां-बाप की भी भूमिका होती है। अकसर मां-बाप छोटे बच्चों को शरारत न करने के लिए छोटी-छोटी बातों से डराते रहते हैं। जैसे कि कोई बाबा आयेगा और झोली में डालकर ले जायेगा। छोटे बच्चे इस वजह से बाबाओं को देखते ही डर जाते हैं। लेकिन बड़े होने पर पता चलता है कि उन्हें मां-बाप ने बहकाया था। बच्चों की परवरिश में इन झूठी बातों से बचना चाहिए।

भविष्य पर टिका भय का मनोविज्ञान

डर आमतौर पर भविष्य से जुड़ा होता है। मैं लिफ्ट में जाऊंगा तो कहीं फंस तो नहीं जाऊंगा। मैं मीटिंग में सबके सामने बोलूंगा तो कहीं गलती तो नहीं हो जायेगी, लोग मुझ पर हंसेंगे तो नहीं। ये ऐसे डर हैं जो आमतौर पर हम सबको लगते हैं और हम इनके बारे में सोच-सोचकर डरते रहते हैं। अगर हमारे मन में किसी तरह के संक्रमण की आशंका बैठ जाए, तो एक छींक आते ही हम बहुत डर जाते हैं, लगता है हमें इस संक्रमण ने जकड़ लिया। इंटरव्यू देने जाते वक्त हम इसलिए डर जाते हैं कि हमारे मन में ऐसे सवालों की चेन चलती रहती है, जो सवाल अभी तक हमसे न तो पूछे गए हैं और हो सकता कभी न पूछे जाएं। खुद ही हम इंटरव्यू देने जाने के समय डर जाते हैं। दरअसल यह हमारी परवरिश की खामी है। हम या तो बिना किसी वजह के डरते हैं या राई का पहाड़ बना लेते हैं। अगर हमारे मन में यह भाव मजबूती से बैठा हो कि जब कोई बात सामने आयेगी, तब देखी जायेगी, तो हमें भविष्य से कभी डर ही न लगे।

डर तब बन जाता है समस्या

मामूली चीजें भी कई बार बहुत बड़ी समस्या बन जाती हैं। दरअसल मन बहुत कल्पनाशील होता है। खतरा न होते हुए भी खतरे की घंटी सुनने लगता है। रस्सी को कल्पना करते ही सांप समझ लेता है और उसके खतरे को बड़ा बना लेता है। दूसरी तरफ जो कल्पना से नहीं डरता, जिसमें डरावनी भावनाओं का रेला नहीं होता, वो कई बार सांप को भी रस्सी समझकर उसे पकड़कर छत पर चढ़ जाता है। डर जितना असल में होता है, उससे कहीं ज्यादा कल्पना से बढ़ जाता है। इसलिए डर की कल्पना से बचना बेहतर है। -इ.रि.सें.

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