कक्षा ही बने वर्कशाप तो युवा होंगे हुनरमंद
डॉ. घनश्याम बादल
तमाम कोशिशों के बाद भी देश में शिक्षा का स्तर उतना उन्नत नहीं हो पाया जिसकी अपेक्षा देशवासी एवं विशेषज्ञ करते हैं। आज भले ही नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू कर दी गई है लेकिन फिर भी स्कूलों में शिक्षा एवं शिक्षण पद्धति में खास फर्क नजर नहीं आ रहा है। सब ढर्रे पर चल रहा है।
व्यावहारिक पक्ष
भले ही नई शिक्षा नीति समावेशी शिक्षा की बात करती हो एवं व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास पर बल देती हो लेकिन असलियत यही है कि आज भी स्कूली शिक्षा पूरी करने के बावजूद विद्यार्थी का व्यावहारिक ज्ञान बहुत ही निम्न स्तर का है। भले ही पुस्तकीय ज्ञान के आधार पर उसे प्रमाण पत्र मिल जाता हो लेकिन वह व्यावहारिक जीवन एवं व्यवसाय में सफलता प्राप्त करने की गारंटी नहीं है।
शिक्षा का व्यावसायीकरण
यह स्थिति केवल विद्यालय से लेकर महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय स्तर पर भी है। मसलन, बीटेक की डिग्री प्राप्त करने के बावजूद यदि अपने क्षेत्र का व्यावहारिक ज्ञान नहीं है तब ऐसे डिग्री धारी को स्तरीय रोजगार मिलना बहुत मुश्किल है। इसके पीछे मूल रूप से शिक्षा का व्यवसायीकरण होना है। आज बड़े- बड़े व्यावसायिक संस्थान विद्यालयों, महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों का संचालन कर रहे हैं। इसमें वे भारी निवेश करते हैं जिससे वे कहीं अधिक धन कमाना चाहते हैं। इन निजी संस्थानों में कुछ शिक्षक या प्रवक्ता तो कम योग्यता वाले होते हैं। ऐसे में उनसे उच्च स्तरीय शिक्षा की उम्मीद कहां तक सही होगी।
आमूल-चूल परिवर्तन की जरूरत
यदि वास्तव में शिक्षा के स्तर को सुधारना है तो आमूल-चूल परिवर्तन करने होंगे और विद्यालय स्तर से ही शिक्षा को व्यावहारिक बनाना होगा जिससे विद्यार्थियों को परीक्षा पास करके आजीविका चलाने लायक दक्षता प्राप्त हो सके। साथ ही परंपरागत पाठ्यक्रम की बजाय नई आवश्यकताओं के अनुरूप नए-नए पाठ्यक्रम अस्तित्व में लाने होंगे और कक्षाओं को भी केवल श्यामपट्ट या स्मार्ट बोर्ड तक सीमित न रखकर के कार्यशाला में परिवर्तित करना होगा ।
आयोजन की चूक
अभी-अभी केंद्र सरकार ने पीएम श्री विद्यालयों के रूप में एक और अभियान शुरू किया है जिसके अंतर्गत अकादमिक गतिविधियों के अतिरिक्त बहुत सारी पाठ्य सहगामी गतिविधियां संचालित की जा रही हैं। कहीं विशेषज्ञों को बच्चों को संबोधित करने के लिए बुलवाया जा रहा है तो कहीं स्मार्ट बोर्ड और प्रोजेक्टर आदि के माध्यम से उन्हें वर्चुअल चीजें दिखाई जा रही हैं। लेकिन अचानक ही एक योजना प्रस्तुत कर दी जाती है उसका बजट अलॉट कर दिया जाता है लेकिन यथार्थ में यह नहीं देखा जाता कि जहां यह योजना चलाई जा रही है वहां पर उसे योजना को क्रियान्वित करने लायक संसाधन भी हैं या नहीं। यदि संसाधन हैं भी तो उन संसाधनों का उपयोग करने वाले विशेषज्ञ एवं शिक्षक मौजूद हैं या नहीं।
ठोस हों योजनाएं
पीएम श्री योजना के अंतर्गत एक अच्छी चीज यह आई कि इसमें हस्त कौशल को विकसित करने के लिए स्थानीय कारीगरों जैसे कुम्हार ,बढई, लोहार जिल्द साज आदि को बुलवाने की बात कही गई। लेकिन एक-आध दिन इन लोगों के आ जाने से बच्चे कैसे इन हस्तकलाओं में पारंगत हो सकते हैं? ऐसे में यह केवल एक तरीके का प्रदर्शन मात्र ही बनकर रह जाता है। सचमुच सरकार शिक्षा का स्तर एवं गुणवत्ता सुधारने के प्रति चिंतित है तो उसे जमीन से जुड़ी हुई योजनाएं न केवल बनानी होंगी
अभी तो उन्हें व्यावहारिक रूप में जमीन पर भी उतारना होगा। इसके लिए विद्यालयों में अकादमिक गतिविधियों को थोड़ा कम करना होगा और उन्हें इस प्रकार से नियोजित भी करना होगा कि वह व्यावहारिक दुनिया से जुड़ी हों।
नियमित कार्यशालाएं
उदाहरण के लिए यदि बच्चों को पारंपरिक हस्त कौशल सीखने हैं तो इन्हीं से संबंधित वस्तुएं बनाने की प्रक्रिया, उनकी बाजार मांग-आपूर्ति व विक्रय के तरीके सैद्धांतिक तौर पर पढ़ाए जाने चाहिए। साथ ही हस्त कौशल में पारंगत प्रशिक्षकों को कम से कम एक साल के लिए एक स्कूल विशेष में रोजगार दिया जाना चाहिए। इसी तरह आधुनिक कौशल विकास की दृष्टि से बच्चों को यदि इलेक्ट्रॉनिक्स यंत्रों का निर्माण सिखाना है तो उसमें उन्हें इलेक्ट्रॉनिकी के सिद्धांत पढ़ाए जाएं तथा बाद में विद्यालयों में ही इस प्रकार की कार्यशालाएं आयोजित की जाएं कि बच्चे विशेषज्ञों की देखरेख में घड़ी, कैल्कुलेटर, टेलीविजन सेट व डोर बेल आदि इलेक्ट्रॉनिक्स यंत्र स्वयं बनाएं। जो भी उत्पादन बच्चे करें उन्हें मार्केट में भेजना, बिक्री की व्यवस्था, समयबद्ध आपूर्ति के साथ-साथ प्राप्त लाभ को बच्चों के खाते में यदि भेजा जाएगा तो वे रुचि पूर्वक इन कलाओं को सीखेंगे। इससे देश में रोजगार की समस्या का हल भी निकलेगा।
हर स्तर पर हो ट्रेनिंग
विद्यार्थियों को हर स्तर पर कुछ न कुछ उत्पाद बनाने का शिक्षण-प्रशिक्षण, अनुभव एवं अवसर हर हाल में प्रदान करना होगा। उनके उत्पाद उपभोक्ताओं की जरूरतों को पूरा करने वाले होने चाहिए। जापान और चीन जैसे देश यह कार्य सफलतापूर्वक कर रहे हैं। यदि हम ऐसा करने में सफल हो गए तो बेरोजगारी की समस्या कम हो जाएगी और विद्यालय एक प्रकार से कारखानों में भी तब्दील हो जाएंगे।