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दोस्त करीब रहें तो दुश्मन और भी नजदीक

06:33 AM Jun 10, 2024 IST
दोस्त करीब रहें तो दुश्मन और भी नजदीक
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ज्योति मल्होत्रा

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एक बार फिर प्रधानमंत्री बनने के लिए दावा प्रस्तुत करने के बाद रविवार को शपथ ग्रहण समारोह हुआ। यह करते हुए उन्होंने जवाहरलाल नेहरू के लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने के रिकॉर्ड की बराबरी कर ली है। सहयोगियों चंद्रबाबू नायडू, नीतीश कुमार, एकनाथ शिंदे और चिराग पासवान ने पुनर्जीवित हुई एनडीए की ओर से उनका गर्मजोशी से स्वागत किया। वहीं पंजाब में सरबजीत सिंह खालसा, अमृतपाल सिंह ने तो जम्मू-कश्मीर में इंजीनियर राशिद ‘लंगाते’ ने अपनी सीट जीती है- इनमें दो आखिरी अभी भी जेल में बंद हैं, उन पर क्रमशः राष्ट्रीय सुरक्षा कानून और यूएपीए की धाराएं लगी हैं।
चुनावी खिचड़ी की देग से निकले इन तीन किंतु एक-दूसरे से अलग संदेशों पर, चुनाव उपरांत सोनिया गांधी को लेकर अफवाह भारी रही जब कहा गया कि उन्होंने सरकार बनाने में समर्थन मांगने की गर्ज से नायडू और नीतीश से बात की है। नई दिल्ली में यह बात चली हुई है कि यदि इन दोनों में, जो कोई साथ जुड़ना चाहेगा, उसे इंडिया गठबंधन सर्वोच्च पद देने को तैयार है।
पर ऐसा नहीं हुआ क्योंकि सीधी बात है इंडिया गठजोड़ के पास पर्याप्त संख्याबल नहीं था, लिहाजा यह तय था कि मोदी ही तीसरी बार प्रधानमंत्री बनेंगे। परंतु यदि प्रेस को पता है कि सोनिया ने उस व्यक्ति तक पहुंच की है जिसने उनके साथ बात करने के चंद घंटों बाद मोदी को कीमती कांजीवरम शॉल भेंट करके अपनी निष्ठा व्यक्त की है, तो जाहिर है यह ‘रहस्य’ खुफिया एजेंसियों को और उनकी मार्फत मोदी और शाह को भी जरूर मालूम होगा। यह जानकारी उनके कान खड़े रखेगी। ‘दोस्तों को पास रखो और दुश्मनों को और भी नज़दीक’, चाणक्य और मैक्यावली की इस कूटनीतिक सूक्ति की तगड़ी खुराक तीसरी बार प्रधानमंत्री बने मोदी को अगले कुछ महीनों तक लेने की जरूरत है।
नायडू से, विशेष तौर पर, उम्मीद है कि वे प्रधानमंत्री मोदी की ध्रुवीकरण करने की मुहिम को कुछ मद्धम कर पाएंगे– यहां सवाल यह है कि वे खुद और स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी से शिक्षित उनका बेटा नारा लोकेश (जिसका चुनावी अभियान में एक नारा रहा : ‘सरकार में अभिमान का कोई स्थान नहीं’ और इस कथन ने राज्य में लोगों को बारिश की फुहारों से मिलती राहत का सा अहसास करवाया) क्या यह दोनों मोदी एवं शाह के हाथों में तमाम शक्ति का केंद्रीकरण होना गवारा कर पाएंगे। नायडू और अन्य शायद जल्द ही जान जाएंगे कि शक्ति का प्रयोग, दोधारी तलवार की तरह दोनों तरफ काट करता है। उन्हें पहले ही स्पष्ट कर दिया गया है कि चार मुख्य मंत्रालय यानी रक्षा, विदेश, वित्त और गृह विभाग में कोई एक नहीं मिलने वाला– यहां तक कि लोकसभा अध्यक्ष पद भी नहीं। ऐसे में नायडू और नीतीश यदि अपने प्रिय सूबों आंध्र प्रदेश और बिहार के लिए केंद्र सरकार द्वारा खुले हाथों से विशेष आर्थिक मदद किए जाने की चाहत रखते हैं तो इसकी एवज में मन मसोसने के सिवा और कोई चारा नहीं।
न तो प्रधानमंत्री और न ही उनकी पार्टी के बड़े नेता मीडिया पर कायम अपनी बढ़त खोना नहीं चाहेंगे, जबकि आज तक चैनल पर सुधीर चौधरी की नवीनतम ‘खोज’ कहती है कि इस बार भारत में हिंदुओं के बड़े भाग ने हिंदुत्व के नारे को विशेष महत्व नहीं दिया और इसकी वजह से भाजपा ने आम चुनाव में इतनी बड़ी संख्या में सीटें गंवाई हैं।
सवाल है, क्या मोदी और नायडू क्रमशः अपना-अपना प्रभाव का दायरा बनाने के लिए चुपचाप राज़ी हो जाएंगे– जिसमें आंध्र प्रदेश में नायडू की तो बाकी देश (गैर भाजपा सूबों में) मोदी की चले – या क्या संवेदनशील मुद्दे, जैसे कि संविधान के समक्ष धार्मिक समानता (जिसका मूर्त रूप धार्मिक स्थल अधिनियम 1991 है), इन पर अपना बेबाक नजरिया व्यक्त करने की छूट नायडू को होगी या फिर इसके लिए उन्हें मोदी को खुद से हुए समझौते की याद दिलानी पड़ेगी? हमने देखा है कि किस प्रकार पिछले महीनों में, उत्तर प्रदेश सरकार ने ज्ञानवापी मस्जिद के तहखाने में आनन-फानन में मूर्तियां स्थापित करने की इज़ाजत दी। जब कभी प्रधानमंत्री के चुनाव क्षेत्र वाराणसी में इस मामले पर फिर से साम्प्रदायिक तनाव गहराया और छाया रहा, तो क्या नायडू इसको देखकर आंखें मूंद लेंगे या नजरें फेरना चुनेंगे?
कयास है, हमें शीघ्र ही इसका पता चल जाएगा। यदि नायडू मानते हैं कि सूबे का राजकाज संभालने के लिए अपने बेटे को तैयार करना उनकी पहली प्राथमिकता है, तब राष्ट्रीय मुद्दों पर अपनी अंतरात्मा को कष्ट देने को उनके पास अधिक वक्त नहीं होगा– वास्तव में, प्रधानमंत्री को बल्कि खुशी होगी यदि तेलुगू देशम पार्टी का मुखिया अपने सपनों के ‘आंध्र गणतंत्र’ की रचना करने में व्यस्त रहे और उसके पास भाजपा के घोषणापत्र में शेष बचे मामलों के वादे को अमलीजामा पहनाए जाने पर ध्यान देने लायक समय ही न बचे, मसलन, देशभर में समान नागरिक संहिता (यूनिफॉर्म सिविल कोड) लागू करना।
एनडीए गठबंधन के केंद्र में अपने-अपने प्रभाव को लेकर इस प्रकार की संभावित ऊंच-नीच वाली स्थिति आने वाले महीनों और सालों में बनी रह सकती है। स्वाभाविक है, पहले की अपेक्षा अधिक मुखर हुआ विपक्ष इस तनाव को हवा देने का प्रयास करेगा–ठीक इसी प्रकार सरकार भी अपनी तैयारी पूरी रखेगी कि सदन में बहस की अनुमति देकर इतना शोरोगुल और उत्तेजना पैदा होने दे कि विपक्ष इसमें उलझकर पस्त पड़ जाए और सत्र व्यर्थ जाए, वहीं सरकार सदन के बाहर अपनी शक्ति बरतती रहे।
यदि प्रधानमंत्री जान-बूझकर या अनजाने में जनादेश पढ़ने में गलती कर गए –जैसा कि शुक्रवार को संसद भवन में आयोजित संसदीय दल की बैठक में दिए उनके भाषण से जाहिर होता है, जब उन्होंने विपक्ष का मखौल उड़ाया– तब शायद वे वाजपेयी द्वारा संसद के अंदर विपक्ष से सुलहकारी रवैया रखने के विपरीत अपना कीमती समय भाजपा के अंदर गहरे तक पैठ कर चुकी गांठ को आगे भी ढोते रहने में खर्च करेंगे।
उनके कड़े रुख की निरंतरता का सबूत है कि शपथ समारोह हेतु निमंत्रण भेजते वक्त पड़ोस के दक्षिण एशियाई राष्ट्राध्यक्षों में एकमात्र पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को छोड़कर, सबको बुलावा भेजा गया– कुछ लोग इसे शिष्टता तो शायद ही कहेंगे। इस प्रकार के कड़े संकेत देना, वह भी अपनी नई पारी की शुरुआत करते वक्त, ऐसा करके आप न केवल अपने बैरी से वार्ता के तमाम दरवाज़े बंद करते हैं बल्कि अपने विकल्पों के लिए भी– अवश्य ही, एक भावी क्षेत्रीय शक्ति के लिए ऐसा रवैया रखना दूरदृष्टि विहीन सोच कहा जाएगा। घरेलू मोर्चे पर, अमृतपाल और इंजीनियर राशिद के मामले में, दोनों के प्रति दया दिखाने की उम्मीद पर काफी संशय रहेगा। अपने दुश्मन को करीब रखो, क्या किसी ने यह कहा?

लेखिका द ट्रिब्यून की प्रधान संपादक हैं।

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