मानवीय मोह-विषाद और दिव्य ज्ञान
ज्ञानचंद्र शर्मा
कुरुक्षेत्र की रणभूमि में कौरव और पाण्डव सेनाएं एक-दूसरे के आमने-सामने डटी हुई थीं। युद्ध घोष अभी नहीं हुआ था। श्रीकृष्ण जी ने अर्जुन का रथ लाकर दोनों सेनाओं के मध्य खड़ा कर दिया।
सामने अपने ही तात, भ्रात सगे संबंधियों को खड़ा देख कर अर्जुन का मन विचलित हो गया। ‘मैं इनको मार कर राज प्राप्त करूंगा जो मेरे अपने हैं? नहीं चाहिए ऐसा राज-पाट जो अपनों के रक्त से स्नान हो’ कहकर अर्जुन ने अपने शस्त्र भूमि पर रख दिए। अर्जुन को मोह-जन्य विषाद की इस अवस्था से उबारते हुए श्रीकृष्ण बोले ‘हे अर्जुन! जिनको तुम सामने देख रहे हो उनको तो मैंने पहले ही मार दिया, तुम तो निमित्त मात्र हो इसलिए मोह त्याग कर शस्त्र उठाओ और युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।’ इसके साथ ही उन्होंने अर्जुन को आत्मा, ज्ञान, भक्ति, योग और कर्म जैसे विषयों से भी अवगत करवाया।
अर्जुन का मोह-विषाद मानवीय है और श्रीकृष्ण द्वारा प्रदत्त ज्ञान दिव्य व ईश्वरीय है। यह प्रसंग पांच हज़ार वर्ष से भी अधिक पुराना है परंतु इसकी प्रासंगिकता आज भी है और आने वाले युगों तक बनी रहेगी। विद्वानों ने इसकी अगणित टीकाएं की हैं, बहुविध व्याख्याएं की हैं, फिर भी कुछ और की संभावना बनी रहती है।
हेमराज सिंह ‘हेम’ की रचना ‘समरांगण से,’ को लेखक ने ‘श्रीमद्भगवद्गीता की सरस भावाभिव्यक्ति’ कहा है।
यह भावाभिव्यक्ति है, भावानुवाद नहीं इसलिए लेखक ने मूलपाठ से हटकर चलने की छूट ली। भगवद्गीता के 18 अध्याय यहां अठारह सर्ग हैं। प्रत्येक सर्ग शीर्षक-मंडित है। हर शीर्षक में ‘योग’ शब्द समान रूप से प्रयुक्त है जैसे अर्जुन विषाद योग, सांख्य योग इत्यादि। इनमें भगवद्गीता के सभी मुख्य बिंदु छूने का प्रयास नज़र आता है जिसमें कवि बहुत हद तक सफल रहा। अंत में श्रीकृष्ण स्तुति द्वारा अन्य रूढ़ि का पालन है। ‘समरांगण से……’ की रचना छंदों में हुई है। छंद पूर्ति के लिये कहीं-कहीं भाषा के रूप में शिथिलता देखने को मिलती है। फिर भी रचनाकार के प्रयास की सराहना करनी चाहिए।
पुस्तक : समरांगण से...… लेखक : हेमराज सिंह 'हेम' प्रकाशक : साहित्यागार जयपुर पृष्ठ : 208 मूल्य : रु. 350.