पद-दौलत से बड़ी हैं मानवीय संवेदनाएं
डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’
ईश्वर ने संसार में भेजते समय हर आदमी को एक ‘ढाई इंच’ की थैली दी है, जिसे हम सब आज ‘दिल’ कहते हैं और इसमें भर दिया है ईश्वर ने भावनाओं का एक लबालब सागर। इसी के साथ हर आदमी को दे दिया है काफी बड़ा-सा ‘दिमाग’, जिसमें भरे हैं अहंकार, लालच और हवस के भंडार। कहते हैं कि छोटा-सा ‘दिल’ सारी दुनिया को अपने में समा लेता है, लेकिन बहुत बड़ा-सा ‘दिमाग’ अपने आगे किसी को कुछ भी समझता ही नहीं। कितना ही धन-दौलत हो जाए, इस दिमाग की ‘हवस’ भरती ही नहीं और इसका ‘अहंकार’ तो इसे हमेशा उड़ाए रखता है और आदमी के पैर ज़मीन पर ही नहीं पड़ते। फक्कड़ कबीर जाने किस मस्ती में लिख गए थे, जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई—
‘पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम के, पढ़े सो पंडित होय।’
सच मानिए, जब भी ‘कृष्ण-सुदामा की मित्रता’ के विषय में सोचता हूं, तो यही लगता है कि यहां ‘दिल और दिमाग’ यानी ‘भावना और अहंकार’ का द्वंद्व ही तो दिखाया गया है। एक राजा के सामने जब बाल सखा के रूप में दीन-हीन व्यक्ति खड़ा हो, तब हमें ‘दिल’ और ‘दिमाग’ की असलियत पता चलती है। वस्तुतः ‘संवेदना’ के आगे संसार की सारी निधियां बेकार हो जाती हैं। आदमी के पास ‘संवेदनाएं’ हैं तो वह ‘दधीचि’ बनकर मानवता के लिए अपनी अस्थियों का दान दे सकता है और ‘अहंकार’ है तो रावण बनकर सब कुछ खो देता है। किसी कवि ने खूब कहा भी है :-
‘अहंकार का बोझ प्रिय, सब कुछ देय डुबोय।
संवेदना के अमृत से, यह जग अमृत होय।’
आज इसी प्रसंग में भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त रहे आईएएस टीएन शेषन का लिखा हुआ एक संस्मरण याद हो आया है, जिसमें हमें प्रेरणा के साथ-साथ संवेदना का अमृत मिलेगा।
‘टीएन शेषन जब भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त थे। तब एक बार वे अपनी पत्नी के साथ यूपी की यात्रा पर जा रहे थे। संयोगवश उनकी पत्नी ने सड़क किनारे एक पेड़ पर किसी ‘बया’ (एक प्रकार की चिड़िया) का घोसला देखा। इस बेहद प्यारे से लटके हुए घोसले को देखकर उन्होंने अपने पति से कहा, ‘यह घोसला मुझे ला दो; बहुत प्यारा है। मैं इसे घर में सजाकर रखना चाहती हूं।’
टीएन शेषन ने साथ चल रहे अपने एक सुरक्षा गार्ड से उस घोसले को नीचे उतार कर लाने को कहा। सुरक्षा गार्ड ने पास ही भेड़-बकरियां चरा रहे एक अनपढ़ से लड़के से कहा कि अगर तुम यह घोसला निकाल कर दे दोगे, तो मैं तुम्हें बदले में दस रुपये दूंगा। आश्चर्य कि उस लड़के ने सुरक्षा गार्ड को घोसला लाकर देने से साफ मना कर दिया। तब शेषन स्वयं कार से उतर कर गये और उस लड़के को पचास रुपये देने की पेशकश की, लेकिन लड़के ने उन्हें भी घोसला लाकर देने से साफ इनकार कर दिया।
आश्चर्य में डूबे टीएन शेषन साहब ने जब उस लड़के से घोसला न लाने का कारण पूछा, तो गांव के अनपढ़ लड़के ने कहा कि, ‘सर, इस घोसले में चिडि़या के बच्चे हैं। शाम को जब उन बच्चों की ‘मां’ खाना लेकर आएगी, तो वह घोसला न पाकर बहुत उदास होगी, इसलिए तुम कितना भी पैसा दे दो, मैं घोसला नहीं उतारूंगा।’
इस घटना के बारे में श्री टीएन शेषन लिखते हैं कि... ‘मुझे जीवन भर इस बात का अफ़सोस रहा कि एक पढ़े-लिखे आईएएस में वो विचार और भावनाएं क्यों नहीं आईं, जो एक अनपढ़ लड़का सोचता था?’ उन्होंने आगे लिखा कि ‘मेरी तमाम डिग्री, आईएएस का पद, प्रतिष्ठा और पैसा, सब उस अनपढ़ बच्चे के सामने मिट्टी में मिल गया। जीवन तभी आनंददायक बनता है, जब बुद्धि, धन और पद के साथ आदमी में संवेदनशीलता भी हो। बिना संवेदना के आदमी जिंदा लाश ही तो है।’
निश्चय ही, यह प्रकरण हमें जीवन की वह निधि दे देता है, जो ऊंची से ऊंची डिग्री और अथाह दौलत भी हमें नहीं दे सकती। कभी एक गीत में लिखा था :-
‘धरा तो क्षमाशील है आदि से ही,
गगन भी यदि दे सुधा, तब तो जानें।
स्वयं के लिए तो जगत सांस लेता,
जगत के लिए सांस लो, तब तो जानें।’
आइए, खुद की संवेदनाओं को जगाएं और संसार को अपनी मुट्ठी में कर लें। ये ढाई इंच की थैली ही हमारे जीवित होने का प्रमाण है, इसलिए कैसे भी हो, इसे बचाइए।