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गले मुझ को लगा लो ऐ मिरे दिलदार ...

10:46 AM Mar 24, 2024 IST
गले मुझ को लगा लो ऐ मिरे दिलदार
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आजकल सोशल मीडिया और लाइव टीवी डिबेट में साहित्य से लेकर होलिया मैसेज भी खूब प्रचलन में हैं। इस सिलसिले में होली से जुड़ी कविताओं और शे’र ओ शायरी के अर्थ भी बदले-बदले से महसूस होते हैं। जो मकसद लेकर उनकी रचना कभी की गयी होगी वह तो अब खैर क्या रहना, बल्कि नये संदर्भों में अपना स्तर भी खो चुका है! कल्पना करें कि उन साहित्यकारों की रूहें अगर होली के मौके पर इस दुनिया में उतर आयें तो अपनी कृतियों का हश्र जान परेशान हो जायेंगी।

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साहब होली के आसपास हमारे बुजुर्ग साहित्यकारों की आत्माएं धरती पर आकर देखती हैं, क्या चल रहा है। हिंदी के पितामह भारतेंदु की आत्मा ये लाइनें गुनगुना रही थी-
गले मुझ को लगा लो ऐ मिरे दिलदार होली में, बुझे दिल की लगी भी तो ऐ मेरे यार होली में।
मैंने कहा-भारतेंदु सर, अब तो वक्त यह आ गया है कि 24 बाय 7 तमाम नौजवान, बुजुर्ग यही फरमा रहे होते हैं गले मुझ को लगा लो, फेसबुक ट्विटर सब जगह इतनी अफेयरबाजी मच गयी है, चौबीसों घंटे यही हो रहा है-गले मुझ को लगा लो। हमारे व्यंग्य विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर अकबर इलाहाबादी की आत्मा गुनगुना रही थी-
कुछ हाथ ना आये मगर इज्जत तो है, हाथ उस मिस से मिलाना चाहिए।
मैंने कहा-अकबर साहब यह तो निहायत होलियाना मैसेज है जिसमें आप मिस से हाथ मिलाने की इच्छा जाहिर कर रहे हैं। मिसों के चक्कर में यहां कई लोग सिर्फ होली पर ही नहीं, पूरे साल पड़े रहते हैं। और कई बार मिस से हाथ मिलाने से इज्जत नहीं मिलती, बेइज्जती हो जाती है। आपके कई पुराने शे’र अब मी टू वाले हल्ले की लपेट में आ जायेंगे। मैंने पूछा अकबर साहब- आपके वक्त में धर्म वगैरह को लेकर झगड़े-रगड़े होते थे क्या। अकबर साहब ने बताया- मजहबी बहस मैंने की ही नहीं, फाल्तू अक्ल मुझमें थी ही नहीं।
मैंने कहा-अकबर साहब होली के मौके पर लोग बताइये किस तरह से शराब पीकर बहक रहे हैं, कई तो गिर भी पड़ते हैं। अकबर साहब ने कहा- उसकी बेटी ने उठा रक्खी है दुनिया सर पर, खैरियत गुजरी कि अंगूर के बेटा ना हुआ। खैर साहब, जिस बेटी की बात हुई है, उस बेटी को सरकारें अब यूं बढ़ा रही हैं कि शराब से करोड़ों-अरबों कमा लेती हैं फिर उनमें से कुछेक लाख रुपये यह बताने में खर्च करती हैं कि शराब पीना अच्छी बात नहीं है।
होली के ठीक पहले उधर चचा गालिब भी नजर आये। चचा को बताया-चचा आपका एक शे’र तो रोज ही याद आता है, जब भी हम टीवी चैनलों पर डिबेट देखते हैं। चचा ने हैरानी से पूछा-मैंने कौन सा शे’र लिखा है टीवी डिबेटों पर।
मैंने चचा गालिब को उन्ही का शेर याद दिलाया-
हरेक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है, तुम्ही कहो कि ये अंदाजे गुफ्तगू क्या है।
साहब टीवी डिबेटों में यही हो रहा है-एक दूसरे से कह रहा है-तू क्या है, तू क्या है। गुफ्तगू यानी बात तो ना हो रही है, तू तू मैं मैं ही चल रही है। खैर जी सबको होली पर रंगारंग शुभकामनाएं!

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