कैसे- कैसे घाव
अशोक जैन
दिन ढले रिटायर्ड हेडमास्टर हरी बाबू पार्ट टाइम से घर लौटे तो शारदा को परेशान पाया।
‘क्या हुआ? तबीयत ठीक है न?’ अपना बैग मेज पर रखते हुए पूछा।
‘मेरी तबीयत को छोड़ो। यह थैला पकड़ो और कुछ सब्जी, दही, पनीर वगैरह लेकर आओ।’ शारदा एक स्वर में सब कुछ बोल गई।
‘कौन आ रहा है? या तुम्हारा कुछ नया खाने को जी चर्राया है?’
‘अरे बच्चे आ रहे हैं कल। दो दिन के लिए।’ और एक पत्र पकड़ा दिया हरी बाबू को।
‘तो इसमें घबराने जैसी कौन-सी बात है? अपने घर ही तो आ रहे हैं!’ हरी बाबू ने थोड़ा मजाकिया लहजे में कहा।
‘उन्हें भी उबली हुई सब्जियां खिलाऊंगी क्या?’ शारदा ने उसके बाद अपना प्रोग्राम बता दिया।
‘देखो शारदा! हम जैसे-तैसे गुजर-बसर कर रहे हैं। उतना ही बनाना जितना खाया जा सके।’
‘सो तो मैं भी सोच रही हूं। काफी समय बाद बच्चे घर आ रहे हैं, कुछ तो बनाना ही है न!’ शारदा ने अपनी बात कही। हरी बाबू खामोश हो गये। थैला लेकर बाजार गये और कुछ आवश्यक सामान जुटा लाये। पति-पत्नी दोनों ही बात करते-करते सुबह के लिए कुछ काम निपटाने और थोड़ी तैयारी करने में व्यस्त हो गये।
‘बस अब रहने दो। बाकी सुबह कर लेंगे।’ शारदा बोली और सोने की तैयारी करने लगी। लेकिन हरी बाबू की आंखों से नींद गायब थी। सुबह जल्दी उठे और शारदा के जागने से पहले रसोई की आधी तैयारी करने में जुट गये। खटपट हुई तो शारदा की नींद खुल गई।
‘जल्दी क्यों उठ गये? मुझे जगा लिया होता!’ फिर एकाएक सोचकर बोली, ‘कुछ आलू उबाल देना।’
कुछ देर बाद दोनों पूरी तरह रसोई में व्यस्त हो गये। शारदा आटा गूंथ रही थी कि तभी दरवाजे की घंटी बजी। हरी बाबू ने दरवाजा खोला। एक लड़का खड़ा था।
‘कौन है जी, ‘आटे भरे हाथों से ही झांककर पूछा शारदा ने।
‘नमस्ते, बाबू जी। मैं रजत जी के ऑफिस से आया हूं। साहब नहीं आ रहे। कोई आवश्यक काम पड़ गया है। आपको सूचना देने आया हूं।’
‘अंदर आओ, बेटा। काफी दूर से आये हो। चाय-नाश्ता लेकर ही जाना।’ भौचक्के हरी बाबू ने कहा। तभी रसोई में प्रेशर कुकर की सीटी बजी। शारदा रुआंसी सी हो गई थी। और फिर कुछ सोचते हुए उसने आवाज दी, ‘सुनो! कुछ पूरी उतरवा दो। सामान तैयार करके ओल्ड एज होम दे आते हैं। कुछ के तो मुंह लगेगा!’ हरी बाबू रसोई की ओर बढ़ गये।