खुली आंखों से बढ़ी न्याय की उम्मीदें
शमीम शर्मा
एक लोककथा है कि मालिक पेड़ के नीचे खाट पर बैठा हुुुक्का गुड़गुड़ा रहा था। एक कोठे में बैल कोल्हू खींच रहा था और तेल निकल रहा था। एक वकील वहां से गुजरा तो बातों-बातों में पूछने लगा कि अगर ये बैल रुक जाये तो तुम्हें पता भी नहीं चलेगा। मालिक बोला- आराम से पता चल जायेगा क्योंकि उसके रुकते ही बैल के गले में बंधी घंटी भी बजनी बंद हो जायेगी। वकील ने पूछा- यदि यह एक जगह खड़ा होकर सिर्फ नाड़ हिलाता रहे और घंटी बजती रहे तो तुम समझोगे कि बैल चल रहा है। मालिक उसे समझाते हुये बोला- भाई बैल नैं वकालत कोनीं कर राखी। कुल सार यह है कि वकील के वाद-विवाद पर निर्भर करता है कि न्याय किस पक्ष में होगा।
न्याय के लिये प्रसिद्ध विक्रमादित्य के देश्ा में इन दिनों एक खबर किस्सा बनी हुई है कि न्याय की देवी की आंखों से पट्टी हटा दी गई है और दायें हाथ में तलवार को हटाकर भारत का संविधान रख दिया गया है। ये बदलते हुए प्रतीक बदलती हुई न्याय व्यवस्था की जरूरत को इंगित करते प्रतीत होते हैं। पर लाख टके का सवाल है कि क्या न्याय की देवी का रंग-रूप बदलने से न्याय के बुनियादी ढांचे में बदलाव होगा? क्या न्याय की देवी आंखों से पट्टी हटने के बाद देख पायेंगी कि आम आदमी को न्याय मिलने में कितने साल तक खपना पड़ता है। क्या वह जान पायंेगी कि करोड़ों मुकदमों की फाइलें कैसे और कब तक निपटेंगी? विचाराधीन कैदियों की किस्मत की रेखाओं को क्या अब देवी पढ़ पायेंगी? पंच परमेश्वर के रचयिता प्रेमचंद आज सोच रहे होंगे कि क्या अब सचमुच कानून खुली दृष्टि से देखेगा?
एक बार जज ने किसी बुजुर्ग से पूछा- इस उम्र में लड़की छेड़ते शर्म नहीं आई? बूढ़ा आदमी बोला- जज साब मेरी भी तो सुन लो। जज गुस्से में बोला- तुम कोई 18-20 साल के लड़के नहीं हो जो तुम्हारी बात सुनी जाये, अपने बाल देखे हैं सफेद हो चुके हैं। बूढ़ा आदमी बोला- साब ये पचास साल पुराना केस है, जिसे छेड़ा था वो अपने पोते के साथ आई है। काश! न्याय की देवी न्याय के विलंब को निहार सके!
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एक बर की बात है अक कचहरी मैं जज नैं नत्थू तै बूज्झी- हां रै तन्नैं अपणी लुगाई तै बीस साल ताहिं अपणे हाथ की कठपुतली बणा कै राख्या तो इसका मतलब है अक ब्याह होते ही उसतैं डराण-धमकान लाग्या। नत्थू बोल्या- जज साब इस बात खात्तर माफ कर द्यो। जज बोल्या- माफी छोड़, तरकीब बता अक तन्नैं यो कारनाम्मा कर्या कुक्कर?