घर की इज्जत
डॉ. योगेंद्र नाथ शर्मा ‘अरुण’
रमा की आंखों में आंसुओं की गंगा तैर रही थी और उसकी सास सीता देवी एक ही बात दोहराए जा रही थी ‘बेटी! मैं तुझे आज तक पराई मानती रही… हरदम तुझे परेशान करती रही… और तूने… आज मेरे घर की इज्ज़त को लुटने से बचाया है?’
प्रायश्चित की आग में सास सीता देवी के दिल की नफरत आज भस्म हो चुकी थी। उसकी बहू की सूझबूझ से उसकी बेटी शारदा का जीवन नष्ट होने से बच गया था। शारदा अपनी भाभी रमा के खिलाफ हर समय मां के कानों में जहर भरा करती थी… भाभी के हर काम में मीन-मेख निकालकर कैसे भी उसे अपमानित करने पर तुली रहती थी… लेकिन आज तो शारदा का रोम-रोम जैसे भाभी के प्यार से भीग चुका था और वह कृतज्ञ भाव से भाभी रमा को अपनी सबसे बड़ी हितैषी मान रही थी।
रमा अपने कमरे में चुपचाप लेटी थी और उसका मन अतीत के उन कड़वे क्षणों की यादों में खोया हुआ था, जब उसने अपने विवेक, धैर्य और साहस का परिचय देते हुए अपने घर की इज्ज़त को बचाने का निर्णय कर लिया था। रमा अतीत में खो गई… और लगा कि उसकी आंखों में चलचित्र की तरह अतीत में घटी घटनाएं एक-एक करके साकार होने लगीं।
‘बहू ! ऐ बहू! हर समय अपने कमरे में घुसी हुई क्या करती रहती है तू? शादी के बाद ससुराल में बहुएं पलंग की सेवा करने नहीं आतीं, बल्कि सास-ससुर, जेठ-जेठानी, देवर-देवरानी और ननदों की सेवा करने आती हैं… और एक तू है कि अपने कमरे में घुसी दिन भर जाने क्या-क्या करती रहती है… शारदा बेटी कॉलेज से आती होगी… कुछ खाना-वाना भी बनेगा या नहीं?’
रमा अपने घर पत्र लिख रही थी… उसे बीच में ही छोड़ कर आई और बोली ‘मां जी! खाना तो दीदी को कॉलेज से आते ही रोज़ तैयार मिलता है। मैं तो दाल, सब्ज़ी वगैरह बनाकर रख चुकी हूं। काम ही भला कितना है घर में? ये तो दफ्तर से शाम को ही आएंगे न? …मैं अपने पिताजी को पत्र लिख रही हूं। बताइए, कोई काम है क्या?’
और सीता देवी भड़क उठी थीं ‘अरी, मेरा क्या काम हो सकता है? विधवा औरत की भी भला कोई ज़िन्दगी होती है? मेरा बेटा धर्मेश तो बंधा रहता है तेरे पल्लू से। बची मेरी बेटी शारदा… तो उसके लिए किसी को चिंता करने की फुर्सत ही कहां है? बेचारी अपने आप ही अपनी पढ़ाई करती रहती है। बाप हुआ होता तो उसके हाथ पीले करने के लिए दौड़-धूप करता,लेकिन अब कौन फिक्र करे उसकी? जा, जा, तू अपने बाप को चिट्ठी लिख ले… कहीं देर न हो जाए?’
रमा पढ़ी-लिखी थी और उसके प्रोफेसर पिता ने उसे सदा यही सिखाया था कि अपने बड़ों का सम्मान करके ही उनका प्यार पाया जा सकता है। यही कारण था कि रमा अपनी सास की कड़वी बातों का न तो बुरा ही मानती थी और न ही कभी पलट कर जवाब देती थी। रमा जानती थी कि उस की विधवा सास को बी.ए. फाइनल में पढ़ने वाली उसकी इकलौती ननद शारदा ही उल्टी-सीधी कह कर भड़कती रहती है। सिर चढ़ी शारदा, असल में दो वर्ष पूर्व हुई पिता की मौत के बाद से ज्यादा ही मां के लाड़-प्यार का सहारा पाकर मनमानी करने लगी थी।
रमा को याद है वह दिन, जब उसने शारदा की कॉपी में रखा हुआ किसी लड़के का प्रेम पत्र पढ़कर उसे समझाया था ‘देखो, शारदा दीदी! मैं भी कॉलेज में पढ़ी हूं। मैंने एम.ए. किया है। मैं जानती हूं कि इस उम्र में ऐसा आकर्षण बहुत जल्दी लुभाता है, लेकिन इसका परिणाम बहुत बुरा होता है।’
रमा को याद है कि शारदा बीच में ही उस की बात काटकर बुरी तरह भड़क उठी थी ‘देखो भाभी, आप बड़ी हैं तो मेरी बला से, लेकिन मैं कोई दूध पीती बच्ची नहीं हूं। …आपने कैसे मेरे सामान की तलाशी लेकर मेरा पत्र निकाला और पढ़ा है? …क्या मैं कभी आपकी जासूसी करती हूं?’ यह सुन कर रमा को गुस्सा तो बहुत आया था, लेकिन विवेक और धैर्य से काम लेते हुए उसने शारदा से कहा था ‘मैं तुम्हारी भाभी हूं और इस घर की इज्ज़त की रखवाली करना मेरा धर्म है शारदा दीदी! यह मत भूलो कि जिस राह पर आज तुम बहके कदमों से चल रही हो, मैं उसी राह पर संभले कदमों से चलकर इस घर की बहू बनी हूं। …और …हां! इस पत्र की वाहियात भाषा पढ़कर मुझे लग रहा है दीदी कि तुम किसी बहुत गलत लड़के के चक्कर में फंस रही हो, जो तुम्हें बर्बाद करने के लिए ही अकेले में… किसी होटल में… बुला रहा है?’
रमा के अनुभव और दृढ़ता के सामने उसकी ननद शारदा ठहर नहीं सकी थी। आंसू बहाते हुआ शारदा ने झूठ बोल दिया था ‘भाभी, मेरा कोई ऐसा-वैसा चक्कर नहीं है। इस लड़के ने अपनी ही तरफ से मुझे प्रेमपत्र दे दिया है। सच मानिए, भाभी! मैं इससे कोई वास्ता नहीं रखूंगी। भाभी, मैं आपके पांव पड़ती हूं, आप भैया और मां से इस बारे में कुछ मत कहना। मुझे माफ़ कर दीजिए, भाभी।’ और रमा ने शारदा को गले लगा कर उस के आंसू पोंछते हुए कहा था – ‘अरी पगली, भला कोई अपने घर की इज्ज़त का दीवाला निकाल सकता है? …चल, उठ! हाथ-मुंह धोकर आजा… मैं चाय बनाती हूं, दोनों पीयेंगे। अम्मा जी तो मंदिर गई हुई हैं।’
लेकिन, शारदा ने मां से जाने क्या-क्या कहा कि सीता देवी के मन में रमा के विरुद्ध यह बात जम कर बैठ गई कि रमा उसकी इकलौती बेटी शारदा को अकारण ही बदनाम करना चाहती है।
रमा ने करवट बदली। उसे प्यास लग आई थी… उठकर पानी पिया और बिस्तर पर लेट गई। विचारों की उधेड़-बुन में फिर खो गई रमा।
रमा के ससुर प्रसिद्ध और सफल वकील थे। खूब पैसा था और बड़ी सी कोठी बनवाई थी उन्होंने। रमा को धूमधाम से ब्याह कर लाए थे, लेकिन बड़ी मुश्किल से उसकी शादी को छह माह ही बीते थे कि हार्ट अटैक से उनका स्वर्गवास हो गया था। रमा का पति धर्मेश अकाउंट्स ऑफिसर था और रमा को बहुत प्यार करता था। रमा बेहद खुश और सुखी थी, लेकिन अपनी ननद शारदा के कारण जहां चिंतित रहती थी, वहीं यदाकदा सास की उल्टी-सीधी भी सुननी पड़ती थी उसे।
रमा को तीन दिन पूर्व कॉलेज से लौटी ननद शारदा का व्यवहार बड़ा अजीब-सा लगा था। शारदा आते ही सीधे अपने कमरे में घुस गई थी। मां रोज़ की तरह मंदिर गई हुई थी और धर्मेश अपने दफ्तर में था। रमा को कमरे में कुछ खटपट-सी सुनाई दी तो वह शारदा के कमरे में चली गई। रमा ने देखा कि शारदा अपनी अटैची के कपड़े उलट-पलट रही है। रमा ने अचानक पहुंच कर यह सब देखा तो शारदा से पूछा ‘क्या बात है दीदी! कहां जाने की तैयारी है? कहीं जा रही हो क्या?’
शारदा रमा की आवाज़ सुनकर चौंक-सी पड़ी और कपड़ों के नीचे कुछ छिपाते हुए बोली ‘अरे नहीं, नहीं भाभी! मुझे भला कहां जाना है? …मैं तो बस यूं ही कुछ ढूंढ़ रही थी।’ और उसने तुरंत अपनी अटैची बन्द कर दी।
रमा भांप चुकी थी और उसकी तेज़ निगाहों से नोटों की वह गड्डी छिपी नहीं रह सकी, जिसे छिपाने की कोशिश शारदा ने की थी। लेकिन रमा ने कुछ नहीं कहा और शारदा को यह आभास भी नहीं होने दिया कि उसने कुछ देखा भी है। बड़े ही प्यार से रमा बोली ‘दीदी, यह क्या? अभी-अभी तो कॉलेज से आई हो, थक भी गई होगी? आओ, चलो, दोनों चाय पीएंगे।’
शारदा ने अटैची यूं ही छोड़ दी और रमा के साथ चल दी ताकि रमा को कोई शक न हो सके। इसी उद्देश्य से शारदा बड़े ही प्यार से बोली ‘आइए, भाभी! आज चाय मैं बनाती हूं, आप बैठिए।’
चालाक शारदा सब कुछ सामान्य दिखाने का अभिनय करते हुए चाय बनाने के लिए जैसे ही किचन में गई, तभी रमा ने तुरंत शारदा के कमरे में पहुंच कर अटैची खोल कर देखी तो हतप्रभ-सी खड़ी रह गई। सौ-सौ रुपयों की गड्डियां और गहनों का डिब्बा शारदा अटैची में रख चुकी थी। तभी रमा ने परिचित से हस्तलेख में लिखा एक पत्र पढ़ा जो शारदा के नाम लिखा गया था। अनायास ही पत्र पढ़कर रमा सन्नाटे में आ गई।
शारदा के उसी प्रेमी का पत्र था, जिसमें उसने लिखा था कि आज ही शाम की गाड़ी से घर से भागकर वे दोनों कोर्ट में शादी कर लेंगे। उसने पत्र में शारदा को घर से गहने और रुपये लेकर सीधे रेलवे स्टेशन पहुंचने की बात लिखी थी। रमा तो यह पत्र पढ़कर एकबारगी सहम ही गई थी, लेकिन धैर्य रख कर वह सहज भाव से अपने कमरे में आ गई और बैठ गई। तभी शारदा चाय बना कर ले आई। रमा ने सहज भाव से चाय पी और ऐसा दिखाती रही कि उसे किसी भी बात की जानकारी नहीं है। चाय पी कर रमा ने शारदा को आराम करने के लिए जान- बूझकर उसके कमरे में भेज दिया।
अब रमा ने दृढ़तापूर्वक सारी स्थिति पर विचार किया और मन ही मन यह तय किया कि वह इस घर की इज्ज़त को अपने प्राणों की बाज़ी लगा कर भी हर हाल में बचाएगी। रमा की सास अभी तक मंदिर से लौटी नहीं थी और चार बजने वाले थे। रमा ने सोचा कि मां जी आती ही होंगी और शारदा को छह बजे रेलवे स्टेशन पहुंचना है। अच्छा हो कि वह मां जी के आने पर ही घर से जाए ताकि मां जी से भी शारदा को झूठ ही बोलना पड़े। रमा ने तुरंत कपड़े बदले और तैयार होकर जोर से बोलकर शारदा को सुनाते हुए कहा ‘शारदा दीदी! मुझे तो जरूरी काम से जरा बाहर जाना है, आप घर पर ही हो ना? मैं उधर से आपके भाई साहब के साथ ही घर आऊंगी। आप मां जी को भी चाय पिला देना।’
शारदा ने भी जोर से ही बोलते हुए कहा ‘ठीक है, भाभी! आप जाइए। मैं घर पर ही हूं।’ और रमा घर से चली गई थी। खुश होकर शारदा ने अपने भाग्य को धन्यवाद दिया कि भाभी बिना कुछ जाने-समझे खुद ही घर से चली गई, वर्ना बड़ी मुश्किल हो गई होती। शारदा ने मां के मंदिर से आने के पहले ही घर से जाना अधिक फायदे का मानकर अपनी तैयार अटैची उठाई और घर का ताला लगाकर कोठी के पीछे रहने वाले चौकीदार को चाबी देकर चल दी। चौकीदार को उसने हिदायत दे दी कि जब मां मंदिर से आए तो कह दे कि वह भाभी के साथ बाजार गई हुई है।
सारी योजना बनाकर, शारदा सड़क पर आई तो देखा, घड़ी में पांच बजने वाले थे। उसने टैक्सी बुलाई और ‘रेलवे स्टेशन चलो’ कहकर पूरी तरह निश्चिंत मन से टैक्सी में बैठ गई। उसके मन में राहुल के साथ, घर से भागकर, शादी करने का जुनून ऐसे भर गया था कि उसने एक बार भी यह नहीं सोचा कि इस प्रकार घर से भागने की बात से मां के दिल पर क्या गुजरेगी? उसका बड़ा भाई क्या सोचेगा? वह तो हवा के वेग में उड़ते हुए तिनके की तरह बस उस राहुल के आकर्षण में उड़ी जा रही थी।
उधर रमा अपनी योजना के अनुसार पहले कोतवाली पहुंची और वहां से सादे कपड़ों में कुछ पुलिस वालों को तैनात करवा के, स्वयं शारदा की प्रतीक्षा में खड़ी हो गई। इधर राहुल अपने तीन-चार गुंडे दोस्तों के साथ मारुति कार से उतरा और कार के ड्राइवर को कुछ हिदायत देकर, एक साथी के साथ रेलवे इन्क्वायरी के बूथ पर खड़ा हो गया। दोनों ही बेहद खुश थे। तभी शारदा टैक्सी से स्टेशन पहुंची और राहुल भी अपने साथी को इशारा करके उसके पास पहुंच कर बोला ‘सब कुछ ठीक है ना? …जो मैंने कहा था, वह सब ले लिया है ना?’
शारदा ने चहकते हुए कहा ‘हां, हां, मेरे राहुल! सब ले आई हूं।’ यह सुनकर राहुल बहुत खुश हुआ और शारदा से प्यार भरे स्वर में बोला ‘लाओ, प्रिये! अटैची मुझे दे दो। अभी ट्रेन के आने में आधा घंटा है… तुम लेडीज़ वेटिंग रूम में चलकर बैठो… मैं एसी के टिकिट ले आया हूं। और, हां… जरा संभल कर जाना, कोई तुम्हें देख या पहचान न ले, इसका ध्यान रखना।’
और, धोखेबाज़ राहुल के प्यार में अंधी शारदा ने अटैची राहुल को थमा दी और वेटिंग रूम की तरफ चल दी। राहुल ने अपने साथी को इशारा किया और मारुति कार स्टार्ट हो गई। इससे पहले कि राहुल अटैची लेकर कार में बैठ पाता, सादी वर्दी में तैनात कई पुलिसवालों ने उसे साथी के साथ ही घेर लिया। पुलिस इंस्पेक्टर ने राहुल को तुरंत गिरफ्तार करके हथकड़ी लगा दी। तभी रमा वहां आई और इंस्पेक्टर को ‘बहुत-बहुत धन्यवाद’ कहकर राहुल से कड़कती आवाज़ में बोली ‘लाओ, यह अटैची मुझे दो। आज तुम रंगे हाथ पकड़े गए हो बदमाश।’
और, अटैची लेकर रमा ज्यों ही रेलवे के वेटिंग रूम में पहुंची, तो शारदा सकपका गई। वह घबराते हुए बोली ‘भाभी, आप!’ रमा ने प्यार से शारदा का हाथ पकड़ा और उसे गले लगाते हुए बोली ‘चलो, दीदी! घर चलो। कोई राहुल यहां नहीं आएगा… चलो, अपने घर चलें।’
रमा शारदा को लेकर बाहर आई तो उसने देखा कि उसे प्यार के रंगीन सपने दिखाकर बहकाने वाला राहुल पुलिस की हिरासत में है। जब शारदा को पता चला कि गुंडों का एक गिरोह भोली-भाली और बड़े घर की पैसे वाली, लड़कियों को प्यार के जाल में फंसा कर लूटता और बर्बाद कर देता है, उसी गिरोह का सरगना राहुल है, तो शारदा बुरी तरह बिलख उठी। फिर जाने क्या हुआ कि वह रमा के गले लगी और फूट-फूट कर रोते-रोते बेहोश हो गई।
रमा जब शारदा को लेकर घर पहुंची तो धर्मेश और मां जी बुरी तरह बेचैन थे। रमा ने बड़े प्यार से सहारा देकर अपनी ननद शारदा को टैक्सी से उतारा और अपने कमरे में ले जाकर लिटा दिया। मां को जब सारी बात पता चली, तो मां भौंचक्की रह गईं थी। मां की आंखों से आंसुओं की धारा बह चली थी… और सीता देवी बार-बार कहे जा रही थीं ‘बेटी! मैं तुझे आज तक पराई मानती रही… हरदम तुझे परेशान करना ही मुझे अच्छा लगता रहा… और तूने… मेरे घर की इज्ज़त को लुटने से बचाया है।’
मां के गले लगते हुए, रमा ने सिर्फ इतना ही कहा- ‘मां! यह घर मेरा नहीं है क्या? …इस घर की इज्ज़त मेरी भी तो है न मां?’