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Holi 2025 : कुलदेवता के डर से 125 गांवों के लोग नहीं मनाते होली, त्योहार की मस्ती से रहते हैं दूर

06:49 PM Mar 12, 2025 IST

पिथौरागढ़, 12 मार्च (भाषा)

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उत्तराखंड के कुमांउ क्षेत्र के अधिकतर भागों में जहां देश के अन्य हिस्सों की भांति होली की धूम मची हुई है, वहीं इसके अंदरूनी उत्तरी हिस्से में 125 से अधिक गांवों में लोग कुलदेवताओं के प्रकोप के डर से रंगों के इस त्योहार की मस्ती से दूर रहते हैं।

कुलदेवता रंगों से खेलने पर हो जाते हैं नाराज
मुनस्यारी कस्बे के निवासी पुराणिक पांडेय ने बताया कि पिथौरागढ़ जिले के तल्ला डारमा, तल्ला जोहार क्षेत्र और बागेश्वर जिले के मल्ला दानपुर क्षेत्रों के लोग होली का त्योहार नहीं मनाते हैं। उनके कुलदेवता रंगों से खेलने पर नाराज हो जाते हैं। होली एक सनातनी हिंदू त्योहार है जो माघ माह के पहले रविवार से शुरू होकर चैत्र माह के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तक चलता है।

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पूर्वी कुमांउ क्षेत्र के सांस्कृतिक इतिहासकार पदम दत्त पंत ने बताया कि इस हिंदू सनातनी त्योहार को कुमांउ क्षेत्र में 14 वीं शताब्दी में चंपावत के चांद वंश के राजा लेकर आए थे। राजाओं ने इसकी शुरूआत ब्राह्मण पुजारियों के माध्यम से की इसलिए जहां-जहां उन पुजारियों का प्रभाव पड़ा, वहां इस त्योहार का प्रसार हो गया। जिन क्षेत्रों में होली नहीं मनाई जाती है, ये वे क्षेत्र हैं जहां सनातन परंपराएं पूरी तरह से नहीं पहुंच पाईं।

बागेश्वर के सामा क्षेत्र के एक निवासी दान सिंह कोरंगा ने कहा कि सामा क्षेत्र के एक दर्जन से अधिक गांवों में ऐसी मान्यता है कि अगर ग्रामीण रंगों से खेलते हैं तो उनके कुलदेवता उन्हें प्राकृतिक आपदाओं के रूप में दंड देते हैं। न केवल कुमांउ क्षेत्र के दूरस्थ गांवों बल्कि गढ़वाल क्षेत्र में रुद्रप्रयाग जिले के तीन गांवों--क्वीली, खुरझांग और एक अन्य गांव के निवासियों ने भी अपनी कुलदेवी त्रिपुरा सुंदरी द्वारा प्राकृतिक आपदा के रूप में इन गांवों पर कहर बरपाए जाने के बाद पिछले डेढ़ सौ साल से होली नहीं खेली है।

पंत ने बताया कि न केवल उत्तराखंड के कई इलाकों में बल्कि गुजरात के बनासकांठा और झारखंड के दुर्गापुर क्षेत्रों के कई आदिवासी गांवों में भी कुलदेवताओं के श्राप या उनके क्रोध के डर से होली नहीं मनाई जाती है। पिथौरागढ़ जिले के तल्ला जोहरा क्षेत्र के मदकोटी के पत्रकार जीवन वर्ती ने कहा कि चिपला केदार देवता में आस्था रखने वाले उनके क्षेत्र के कई गांवों में भी होली नहीं खेली जाती। चिपला केदार न केवल रंगों से बल्कि होली के रोमांटिक गीतों से भी नाराज हो जाते हैं।

वर्ती ने कहा कि 3700 मीटर उंची पहाड़ी पर स्थित चिपला केदार के श्रद्धालुओं को देवता की पूजा और यात्रा के दौरान तक रंगीन कपड़े पहने की अनुमति नहीं है। पूजा के दौरान पुजारियों समेत सभी श्रद्धालु केवल सफेद कपड़े पहनते हैं। कुलदेवताओं के क्रोध को देखते हुए इन इलाकों में होली अब भी प्रतिबंधित है, लेकिन दीवाली और दशहरा जैसे हिंदू सनातनी त्योहारों को इन दूरस्थ क्षेत्रों में स्थान मिलना शुरू हो गया है। इन गांवों में रामलीला का मंचन होने लगा है और दीवाली भी मनाई जाने लगी है।

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