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हिंदी के विलक्षण साहित्यकार रामदरश मिश्र

11:38 AM Aug 14, 2022 IST

प्रकाश मनु

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रामदरश मिश्र हिंदी के बड़े कद के साहित्यकार हैं, जिन्हें अभी हाल में साहित्य का अत्यंत प्रतिष्ठित सरस्वती सम्मान मिला है। अठानवें बरस के रामदरश जी इस अवस्था में भी पूरी तरह सक्रिय हैं और खूब लिखते-पढ़ते हैं। खास यह है कि युवा पीढ़ी के लेखकों में से किसी की अच्छी रचना पढ़ने को मिल जाए, तो बधाई देना नहीं भूलते। उनकी स्मृति आश्चर्यजनक रूप से बहुत अच्छी है और व्यक्तित्व में खासी जिंदादिली भी।

रामदरश जी मेरे गुरु हैं, दिग्दर्शक भी। उनसे बहुत कुछ सीखा, बहुत कुछ पाया है, बल्कि उनके निकट आकर मेरा जीवन बहुत से भटकावों से बचा। हालांकि, रामदरश जी ने यह कभी नहीं जताया। वे मुझे एक मित्र और छोटे भाई की तरह ही प्यार करते रहे। उनके अहैतुक स्नेह में भीगने के अवसर बहुत आए। संभवत: यह सनzwj;् 1989 की बात है। मेरे साथ बच्चों के प्रसिद्ध कवि रमेश तैलंग के अलावा देवेंद्र कुमार भी थे, जो ‘नंदन’ पत्रिका में मेरे वरिष्ठ सहयोगी और बड़े अच्छे मित्र थे। देवेंद्र जी और मेरी कविताओं का एक साझा संकलन उन्हीं दिनों निकला था, ‘कविता और कविता के बीच’। रामदरश जी को यह संकलन भेंट करने के लिए मैं देवेंद्र जी और रमेश तैलंग के साथ उनके घर पहुंचा था।

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शाम का समय। हम लोग बिना सूचना दिए अचानक ही पहुंच गए थे और यह संकोच हमारे चेहरों पर था। पर वहां जिन रामदरश जी से हमारी मुलाकात हुई, वे तो जैसे बरसों- बल्कि सदियों से हमारे जाने हुए थे। घर के बाहर बरामदे में फरवरी की गुनगुनी धूप में खरहरी खाट पर लेटे हुए। एकदम गंवई, गांव के किसान की मानिंद। वैसी ही सीधी देहयष्टि, वैसा ही मुक्त मन, वैसी ही खुली बातें। सच्चाई की आब से दमकता माथा, चमकती आंखें। कोई खास लेखकीय मुद्रा नहीं। बस मिले, परिचय हुआ और गपशप चल निकली।

इसी बीच, मैंने और देवेंद्र जी ने उन्हें पुस्तक भेंट की। मिश्र जी ने बड़े प्रेम से संकलन लिया। फिर मुस्कराते हुए कहा, ‘मैं कविताएं पढ़ूंगा। फिर आप लोगों से बात भी करूंगा।’ रामदरश जी से मिलकर लौटते हुए लगा, जैसे हम एक भरा-पूरा दिन जीकर लौटे हैं। यह एक वासंती धूप-खिला दिन था, जिसमें भीतर-बाहर की उजास थी। बहरहाल, उस दिन के बाद न रामदरश जी हमारे लिए अजनबी रह गए, न हम उनके लिए। उसके बाद रामदरश जी से मुलाकातों का सिलसिला शुरू हुआ, तो बरसों-बरस चला और आज भी थमा नहीं है।

मुझे याद है, मेरा दूसरा कविता-संग्रह ‘छूटता हुआ घर’ जब निकला था, तो यह एक तरह से विस्मृति में ही विलीन हो गया था। लेकिन हां, रामदरश जी ने इस पर एक लंबा आत्मीयता भरा पत्र लिखा था। बाद में ‘छूटता हुआ घर’ पर प्रथम गिरिजाकुमार माथुर की स्मृति पुरस्कार देने की घोषणा हुई, तो इसकी सूचना भी रामदरश जी ने ही मुझे दी। मैं हक्का-बक्का। मैंने तो कभी इसकी कल्पना भी नहीं की थी। बाद में जब पुरस्कार की राशि में कुछ राशि और जोड़कर मैंने ‘सदी के आखिरी दौर में’ नाम से मित्र कवियों का एक संग्रह निकाला, तो रामदरश जी ने त्रिवेणी सभागार में इन अज्ञात कुल-शील कवियों की कविताओं के बारे में खूब बोला।

ऐसा नहीं कि यह सिर्फ मेरे साथ ही हुआ हो, शायद रामदरश जी से मिलने वाले सभी नए-पुराने, खासकर युवा लेखकों की यही प्रतीति रही होगी। फिर दिल्ली में इतने बरस रहकर भी रामदरश जी न अपने गांव की मिट्टी, खेत और पानी की गंध को भूले हैं और न वहां के दुख और समस्याओं के बीहड़ को! उनका गांव उनके साथ-साथ चलता नजर आता है। शायद जीवन की इस खुली पाठशाला से ही रामदरश जी ने जीवन के बड़े-बड़े पाठ सीखे और कविताओं का एक सीधा-सहज रास्ता तलाश लिया। उनकी कला की यह सादगी ही उनकी शक्ति भी है, उनके सृजन का सहज सौंदर्य भी। शायद इसी कारण उनकी लिखी कविताएं हों, उपन्यास, कहानियां हों, संस्मरण हों या यात्रा-वृत्तांत- वे सीधे दिल में उतरते हैं, और पाठकों को अपने, बहुत अपने से लगते हैं।

आज हम सभी जो रामदरश जी को इस कदर सक्रिय और कर्मलीन रहते हुए, धीरे-धीरे शतायु होने के करीब जाते देख रहे हैं, कम सौभाग्यशाली नहीं हैं। उन्हें देखकर लगता है, हिंदी साहित्य में प्रेम और अपनत्व की धारा अब भी निरंतर बह रही है, और वही सृजन का सच्चा धर्म भी है।

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