भावनात्मक एकता की वाहक भी हिंदी
अमृतलाल नागर
समय निकल जाता है, पर बातें रह जाती हैं। वे बातें मानव पुरखों के पुराने अनुभव जीवन के नये-नये मोड़ों पर अक्सर बड़े काम की होती हैं। उदाहरण के लिए, भारत देश की समस्त राष्ट्रभाषाओं के इतिहास पर तनिक ध्यान दिया जाए। हमारी प्रायः सभी भाषाएं किसी न किसी एक राष्ट्रीयता के शासन-तंत्र से बंध कर उसकी भाषा के प्रभाव या आतंक में रही हैं। हजारों वर्ष पहले देववाणी संस्कृत ने ऊपर से नीचे तक, चारों खूंट भारत में अपनी दिग्विजय का झंडा गाड़ा था। फिर अभी हजार साल पहले उसकी बहन फारसी सिंहासन पर आई। फिर कुछ सौ बरसों बाद सात समुंदर पार की अंग्रेजी रानी हमारे घर में अपने नाम के डंके बजवाने लगी। यही नहीं, संस्कृत के साथ कहीं-कहीं समर्थ, जनपदों की बोलियां भी दूसरी भाषाओं को अपने रौब में रखती थीं। प्राचीन गुजराती भाषा पर ब्रज भाषा का भी गहरा प्रभाव था। बंगला भाषा उड़िया और असमिया पर रौब रखती थी। मलयालम कभी तमिल भाषा की दबोच में थी। यह सब भी चलता था। मैं समझता हूं कि शायद इसी की ऊब, आजादी की नयी चेतना में, अब भारत के हर भाषा क्षेत्र के शिक्षितजनो और उनके प्रभाव से अर्थाभाव ग्रस्त चिड़चिड़े जनसाधारण में गहरी घुटन-सी फूट रही है। भारत की हर भाषा, हर बोली अब अपनी स्वतंत्र स्थिति चाहती है। स्थिति यह है कि इस समय हर व्यक्ति बस ‘स्वतंत्र’ होना चाहता है, ‘स्व’ से ‘तंत्र’ का संबंध और उसका करतब समझे बिना ही।
बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी से हमने देखा कि हर भाषा अपने क्षेत्रीय-जन की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक भूख को शांत करने में समर्थ होकर संस्कृत भाषा के अंकुश से उबरने लगी थी। ज्ञानेश्वर ने गीता रचने के लिए अपनी मातृभाषा मराठी की शरण ली। कृतिवास ने बंगला में, कंबन ने तमिल में, तुलसी ने हिंदी की अवधी बोली में रामायण लिखी। …लल्लेश्वरी उर्फ लालदे कश्मीरी भाषा में अपने आराध्य का स्मरण करती हैं। आंडाल तमिल भाषा में अपने आराध्य को भजती हैं। मीरा ब्रज भाषा, राजस्थानी और गुजराती भाषाओं में अपने आराध्य को और जनाबाई मराठी में अपने आराध्य भाव को, लेकिन इन चारों के आराध्य भारत भर के आराध्य थे। भारत का जनमानस एक भाव में बहता था। चैतन्य, रामानंद, वल्लभाचार्य, कबीर, सूर, तुलसी, तुकाराम, नरसी, नानक आदि कोई व्यक्ति किसी भी भाषा-क्षेत्र का हो, सारे भारत का प्रतिनिधित्व करता था। जहां यह भावनात्मक एकता हो, वहां चौदह भाषाएं अलग होकर भी दरअसल एक ही हैं। …भारत अनेक राष्ट्रीयताओं और जातियों-उपजातियों का देश है। …अंग्रेजों ने हमारी शिक्षा-पद्धति को उजाड़कर हमारी एकता के उस सूक्ष्म तंतुजाल को काटना चाहा।
हिंदी के पुराने सुलेखक श्रीयुत ज्ञानचंद जैन ने वर्षों पहले अपनी किसी प्रस्तावित थीसिस के लिए बड़े श्रम से बड़ा मसाला जुटाया था। …उस समय कोई ‘हिंदी फोनेटिक’ तो मौजूद न था पर समाचारों की भाषा फिर भी हिंदी ही थी। …फिल्लौर, जिला जालंधर, पंजाब के पंडित श्रद्धारामजी ने 1877 ई. में भाग्यवती नाम का एक उपन्यास लिखा था। फिल्लौरी जी लिखते हैं— ‘इस ग्रंथ में वह हिंदी भाषा लिखी है जो दिल्ली और आगरा, सहारनपुर, अंबाला के इर्दगिर्द के हिंदू लोगों में बोली जाती और पंजाब के स्त्री-पुरुषों को भी समझनी कठिन नहीं है। इस ग्रंथ में जिस देश और जिस भांति के स्त्री-पुरुषों की बातचीत हुई है, वह उसी की बोली और ढंग से लिखी है, अर्थात् पूरबी पंजाबी पढ़ा-अनपढ़ा, स्त्री और पुरुष गौण और मुख्य जहां पर कोई जैसे बोला, उसी की बोली भरी हुई है।’ …अपनी संस्कृति की स्वतंत्र सत्ता पहचानने से हमारे नये मध्य वर्ग के पुरखों को हमारी पुरानी भावनात्मक एकता की पहचान हुई। यही एकसूत्रता वे भाषा और लिपि के रूप में भी चाहते थे।
यह हिंदी और देवनागरी लिपि नये भारतीय मध्य वर्ग के प्रयत्न से पुराने भारतवासियों के समाज में वैचारिक क्रांति ला रही थी। जिस तरह से अहिंदी-भाषी बौद्धिकी लोग राष्ट्र की भावनात्मक एकसूत्रता के लिए हिंदी-नागरी की और बढ़ रहे थे, उसी तरह हिंदी-भाषी बुद्धिचेता जनता भी बंगला, गुजराती, मराठी आदि भाषाओं के नए साहित्य की ओर शुरू ही से उन्मुख हो रही थी। …हिंदी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन देश के हर भाषा-क्षेत्र में सफलतापूर्वक संपन्न होते रहे, और यही कारण है कि दक्षिण में एक हिंदी प्रचार सभा ने पिछले चालीस-पैंतालीस वर्षों में अपनी सफलता का एक चमत्कारिक इतिहास बनाया है। यह हिंदी भला ‘फैनेटिक’ बना सकता? हां, यह हिंदी अटूट लगन वाले राष्ट्र-प्रेमी, मानव-मात्र के सच्चे प्रेमियों का सुदृढ़ आस्था वाला समाज अवश्य बना सकती है; और यदि ‘अटूट लगन’ और सुदृढ़ आस्था ‘फैनेटिसिज्म’ शब्द की व्याख्या के अंतर्गत ही आते हों तो हम कुछ नेता बाबुओं के बांधे हुए हुल्लड़ के अनुसार अवश्य ही ‘हिंदी फैनेटिक’ हैं और इसी में अपना गौरव-बोध करते रहेंगे, हमारी भाषा और समाज का विकास भी इस ढंग पर निर्भय-निःशंक होता रहेगा।
(1962, साहित्य और संस्कृति में संकलित)