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हिंदी फीचर फिल्म : लाजवंती

08:08 AM Sep 11, 2021 IST

शारा

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यह फिल्म 1958 में रिलीज हुई थी और ‘मदर इंडिया’ 1957 में। यानी नरगिस और सुनील दत्त के प्रणय-सूत्र में बंधने के दिन। यह भी सच है कि नरगिस ने ताज़ा-ताज़ा राजकपूर की आरके प्रोडक्शन से अलग होकर सभी प्रोडक्शंज के बैनर तले काम करना शुरू कर दिया था और हिट पर हिट दिये जा रही थीं। इससे पूर्व नरगिस का आरके प्रोडक्शंस के साथ ही अनुबंध था। अनुबंध क्या था नरगिस के साथ राजकपूर के जज्बाती रिश्ते भी बन गये थे। (ऐसा सुनने और पढ़ने में आया है)। जब जज़्बे किस्मत के फैसले करने लगें तो वहां अनुबंधों की बात कहां रह जाती है। हां, राजकपूर के प्रोडक्शन हाउस को नरगिस की कमी ज़रूर खल रही थी। खलेगी ही, क्योंकि नरगिस और राजकपूर की जोड़ी ने इस बैनर को ‘बरसात’, ‘आकाश’ जैसी कई हिट फिल्में दीं और लोकप्रियता भी। यह भी दीगर बात है कि आरके प्रोडक्शन के बैनर तले उनके जीनियस अभिनय को वह सान नहीं चढ़ी, जो अन्य प्रोडक्शन हाउसेज में। क्योंकि आरके स्टुडियो में तो उनके नायक पक्के तौर पर राजकपूर ही हुआ करते थे, जिनके साथ उनकी जोड़ी को देखते-देखते दर्शक थक गये थे। बाकी प्रोडक्शंज के बैनर तले नरगिस के जब हीरो भी बदलने लगे तो दर्शकों ने भी ताज़गी का अहसास किया। गिरफ्त से आज़ाद होते ही उन्होंने ‘मदर इंडिया’ जैसी कालजयी फिल्म दी, जिसमें उन्होंने अभिनय की ऊंचाइयां छू लीं और अपने पति सुनील दत्त को भी मिल लीं। इस फिल्म में सुनील दत्त उनके बेटे बने थे। अब सुनील दत्त की भी सुनो। सुनील दत्त का करिअर अभी शेप ले रहा था। शक्ल-सूरत अच्छी होने के बावजूद कोई भी उन पर यह विश्वास करने को तैयार नहीं था कि वह अकेले ही फिल्म खींच पाने का माद्दा भी रखते हैं। मदर इंडिया में नरगिस का साथ मिलने के बाद उन्होंने कई उम्दा फिल्में दीं। ‘मेरा साया’ ऐसी ही फिल्म थी, जिसमें उनकी नायिका साधना थीं। नरगिस के आरके प्रोडक्शंज से अलग होते ही नवांकुर कलाकारों की भी पौ बारह हुई क्योंकि उनके भी नरगिस का हीरो बनने के सपने साकार हुए। नरगिस तो नरगिस। फिल्मों में काम करते-करते कब राज्यसभा में पहुंच गयीं, यह एक लंबी कहानी है। दरअसल उनका वैसा ही स्थान फिल्मों के साथ-साथ समाज व राजनीति में बन गया था। विश्वसनीयता इतनी थी कि लोग उनके नाम की कसमें खाते थे। बाद में यही विश्वसनीयता सुनील दत्त के काम (राजनीति) में भी आयी। हालांकि, उनका (सुनीत दत्त) जल-कल्याण के कार्यों में कम योगदान नहीं था। सबसे ज्यादा फायदा हुआ उनकी बेटी प्रियादत्त को जो न तो फिल्मों में थी और राजनीति में उनकी दखलअंदाजी भी थोड़ी ही थी। नरगिस के जीवन के कई अध्याय दर्शकों/पाठकों की नजर से अछूते हैं। उन्होंने पांच साल की उम्र में फिल्मों में काम शुरू किया था। पहली फिल्म थी तलाश-ए-हक और यह उनकी मां ने निर्देशित की थी। यह 1935 की बात है। जब उन्होंने आग, आवारा और बरसात जैसी हिट फिल्में दीं, उस समय उनकी उम्र सिर्फ 28 साल थी। बताया जाता है कि नर्गिस मूलत: ब्राह्मण परिवार से थी उनके पिता का नाम उत्तम चंद त्यागी था, उन्होंने बाद में इस्लाम कबूल कर लिया और अपना मुस्लिम नाम अब्दुल रशीद रखा। इसलिए तो कहीं-कहीं बाल-कलाकार के रूप में नरगिस का नाम फातिमा रशीद लिखा होता है। दिलचस्प कहानी यह है कि नरगिस की मां जद्दनबाई तब की फिल्मी दुनिया की मशहूर हस्ती थीं। वह कमाल की संगीतज्ञ थीं, नृत्यांगना तो थी ही। वह अभिनेत्री भी थीं। सरस्वती देवी को तो सभी जानते ही होंगे जिन्होंने अशोक कुमार की बहुत-सी फिल्मों को संगीत दिया—जद्दनबाई उन्हीं के साथ ही फिल्मों में आयी थीं और भारतीय सिनेमा की प्रथम संगीत निर्देशक सरस्वती देवी के साथ काम करती थीं। सुनील दत्त, की फिल्म में ‘एक चतुर नार करके शृंगार’ का संगीत उन्होंने ही दिया था। बहरहाल बात जद्दनबाई की हो रही थी। बताया जाता है कि वह एक हिंदू परिवार से ताल्लुक रखती थीं जिन्हें बचपन में नृत्य और संगीत से जुड़े लोग उठाकर ले गये थे। इन्हीं लोगों ने जद्दनबाई को संगीत और नृत्य में पारंगत किया। तब इन क्षेत्रों में स्त्री का खुलकर आना अच्छा नहीं समझा जाता था। शायद यही कारण है कि कुछ समीक्षकों ने उन्हें कोठेवाली तक कह दिया। और तो और इन्हीं लोगों की बदौलत उन्हें मोतीलाल नेहरू की नाजायज संतान भी कहा जाने लगा। क्योंकि मोतीलाल नेहरू जैसे ऊंचे घराने के लोग कला पारखी थे और अगर यह कला स्त्री विशेष के हिस्से में आयी हो तो यह हरगिज जरूरी नहीं कि अमुक स्त्री का चरित्र ही खराब है। इन्हीं लोगों ने जद्दनबाई को स्वर्गीय जवाहर लाल नेहरू की बहन भी कहा था। जबकि सच यह है कि जद्दनबाई बनारस की रहने वाली थीं और मोतीलाल नेहरू इलाहाबाद में रहते थे। यह भी सच है कि जद्दनबाई समय से आगे चलने में विश्वास रखती थीं। वह उस समय फिल्में भी निर्देशित करती थीं। संगीत, नृत्य, गीत रचना में उन्हें पारंगता हासिल थी। उन्होंने तीन शादियां की थी। पहली नरोत्तम दास खत्री उर्फ बच्ची बाबू से जिन्होंने इस्लाम कबूल करके अपना नाम नजीर मुहम्मद रख लिया। जद्दनबाई से उनका पुत्र अख्तर हुसैन हुआ। अख्तर भी फिल्मों में ही काम करते हैं। उनकी दूसरी शादी इरशाद मीर खान से हुई, जिनसे जद्दनबाई को दूसरा बेटा अनवर हुसैन पैदा हुआ। वही अनवर हुसैन जो चरित्र भूमिकाएं निभाते हैं। तीसरे पति उत्तम चंद त्यागी थे जिनसे नरगिस पैदा हुई थी। नरगिस के बचपन का हिंदू नाम निर्मला देवी थी। जिसे तब फातिमा रशीद के रूप में बदला जब नरगिस के पिता ने इस्लाम कबूल कर अपना नाम अब्दुल रशीद रख लिया। यही है नरगिस के बचपन की कहानी। एक और बात फ्लैशबैक के पाठकों से शेयर कर लूं कि नरगिस की नानी कथित तौर पर बनारस की मशहूर तवायफ थी और जद्दनबाई की सौतेली मां थी जो जद्दनबाई को कहीं से उठाकर लाई थी और अपनी ही तरह कोठे पर बिठाना चाहती थी लेकिन विधाता को कुछ और मंजूर था।

इस बार फ्लैशबैक में चरित्र विशेष का चित्रण ज्यादा हो गया लेकिन हम महान हस्तियों के बारे में जानना चाहते हैं इसलिए मेरा विषयांतर होना लाजिमी था। अब चलते हैं फिल्म की ओर। लाजवंती उस जमाने की सुपरहिट फिल्म है, जिसमें नरगिस के साथ बलराज साहनी थे। इस फिल्म को प्रोड्यूस किया था मोहन सहगल ने। यह फिल्म इतनी अच्छी बन पायी कि इसका नामांकन भाषाई सर्वश्रेष्ठ फिल्म के रूप में कांस फिल्म फेस्टिवल में हो गया। इसे बाद में तमिल में भी एंजेल सोल्वी के नाम से बनाया गया। इसने वर्ष 1959 का नेशनल फिल्म अवॉर्ड भी जीता। यह पुरस्कार उन्हें सर्वश्रेष्ठ हिंदी फिल्म का सर्टिफिकेट ऑफ मेरिट के रूप में मिला। ‘गा मेरे मन गा’ इसी फिल्म का गीत है जिसे आशा भोसले ने नरगिस के लिए गाया है। जैसा कि आमतौर पर होता है- इस फिल्म में भी बलराज साहनी ने बेजोड़ अभिनय किया है। नरगिस के साथ उनकी कांटे की टक्कर है। यह मूवी कुछ-कुछ 1949 में आयी अंदाज फिल्म से मिलती है। अंदाज के हीरो की तरह इस फिल्म का हीरो (बलराज साहनी) का भी ऐसा सोचना है कि उसकी पत्नी (नरगिस) जिससे वह पोट्रेट बना रही है, उसका उसी कलाकार के साथ टांका है। नतीजतन उसे घर से निकाल देता है मगर अपनी बेटी (बेबी नाज) को रख लेता है। स्टोरी इस तरह है।

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दरअसल, लाजवंती गृहस्थी की साधारण समस्या को बड़े ही प्रभावशाली ढंग से पेश करती है कि घर में सभी सुविधाएं हों और पति के पास पत्नी के लिए वक्त नहीं है। वे सब कुछ निरर्थक है। निर्मल (बलराज साहनी) शहर का नामी वकील है और उसके आलीशान बंगले में उसके साथ उसकी पत्नी कविता (नरगिस) व बेटी रेनु (बेबी नाज) रहती है। कविता को निर्मल का काम में व्यस्त रहकर उसकी तरफ ध्यान न देना अखरता है। इससे वह अपने आपको इग्नोर फील करने लगती है। तभी उसके कॉलेज के दिनों का सहपाठी और दोस्त सुनील इंग्लैंड से देश लौटता है। वह उसके घर आता है। मिलने-जुलने का सिलसिला बढ़ता है, जिससे दोनों के संबंधों को लेकर कानाफूसी शुरू हो जाती है। बात निर्मल कुमार तक भी पहुंचती है। लोगों की झूठी बातों पर विश्वास करके वह अपनी पत्नी कविता (नरगिस) को घर से बाहर निकाल देता है और बेटी (बेबी नाज) को अपने पास रख लेता है। छोटी बच्ची मां के बिना कैसे रह सकती है? ऐसे ही कम से कम एक दशक बीत जाता है। तभी एक दिन निर्मल को पता चलता है कि उसकी पत्नी कविता जिंदा है, उसकी खुशी का पारावार नहीं रहता। वह सोचता है उसकी बेटी रेनु को उसकी मां मिल जायेगी और उसकी गृहस्थी संपूर्ण हो जायेगी। लेकिन कुदरत क्या रंग दिखाती है? इसके लिए फिल्म देखनी जरूरी है।

निर्माण टीम

निर्देशक : नरेंद्र सूरी

प्रोड्यूसर : मोहन सहगल

पटकथा रचना : उमेश माथुर

मूलकथा – सुरेंद्र

अतिरिक्त संवाद : शैलजा

गीत रचना : मजरूह सुलतानपुरी

संगीत : एसडी बर्मन

सिनेमैटोग्राफी : एमएन मल्होत्रा

सितारे : नरगिस, बलराज साहनी, बेबी नाज़, मनोरमा, टुनटुन, लीला मिश्रा आदि

गीत

चंदा रे चंदा रे : आशा भोसले

कोई आया धड़कन कहती है : आशा भोसले

एक हंस का जोड़ा : आशा भोसले

गा मेरे मन गा : आशा भोसले

आ जा छाये कारे बदरा : गीता दत्त 

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