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चमत्कार को नमस्कार

07:01 AM Oct 10, 2024 IST

नरेश कौशल
समाचार विश्लेषण

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हरियाणा विधानसभा चुनाव में भाजपा के हाथ जो करिश्माई कामयाबी लगी है, उसका यकीन भाजपा दिग्गजों को भी नहीं रहा होगा। नतीजों के बाद बौखलाहट केवल कांग्रेस में नहीं थी बल्कि हरियाणवी मतदाता भी इस ‘खामोश फैसले’ से हैरत में पड़ गए। 5 अक्तूबर के मतदान के बाद शाम को आए अधिकांश एग्जिट पोल कांग्रेस की सत्तावापसी का ऐलान कर रहे थे। चुनावी नतीजों ने एग्जिट पोल के निष्कर्षों की साख पर भी ‘राख’ डाल दी। वैसे तो भाजपा के ‘चाणक्यों’ ने विधानसभा चुनाव की तैयारी लोकसभा चुनाव से पहले ही शुरू कर दी थी। भाजपा की माइक्रो मैनेजमेंट और कांग्रेस के खिलाफ ग्राउंड पर अंदरखाने की गई तैयारियों के परिणाम ऐसे होंगे, इसका आभास शायद भाजपा को भी नहीं था। कांग्रेस को पक्का भरोसा हो चला था कि भाजपा के खिलाफ दो पारियों की एंटी-इन्कमबेंसी की वजह से जीत उसकी थाली में अपने आप आ गिरेगी। हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक जैसी आसान जीत हरियाणा में भी कांग्रेस को नज़र आई। कांग्रेस के अति-उत्साही होने की वजह यह भी रही कि उसे पूर्व मुख्यमंत्री व हरियाणा के दिग्गज नेता भूपेंद्र सिंह हुड्डा के पक्ष में जाट वोटर के ध्रुवीकरण में खुद के लिए कामयाबी पक्की लग रही थी। कांग्रेस यह भांप ही नहीं पाई कि जाट वोटर के ध्रुवीकरण और उनके मुखर होने की वजह से अंदरखाने विरोध में गैर-जाट वोटर भी लामबंद हो रहे हैं। प्रदेश के ओबीसी व सामान्य जातियों के गैर-जाट वोटरों के अलावा एससी वर्ग ने भी अंदरखाने खामोश रहते हुए बड़ा ‘खेल’ कर दिया। इसमें भी कोई दो-राय नहीं है कि भाजपा ने इस चुनाव को पूरी तरह से जाट बनाम गैर-जाट बनाया। पिछले चुनावों के मुकाबले इस बार कम यानी केवल 16 जाट नेताओं को टिकट देकर भाजपा ने अपनी मंशा पहले ही जाहिर कर दी थी। नतीजा, कांग्रेस को फिर से पांच साल का एक और वनवास।
कांग्रेस की इस करारी शिकस्त के साइड इफेक्ट ये सामने आए हैं कि केजरीवाल की पार्टी ने घोषणा कर दी है कि वह दिल्ली विधानसभा चुनाव अकेले लड़ेगी। इंडिया गठबंधन के सहयोगी भी कांग्रेस को आंख दिखाने लगे हैं। वाकई हरियाणा विधानसभा चुनाव परिणामों की तासीर के लिये हरियाणा के सजग अवाम को श्रेय देना होगा, जिसने बेहद खामोशी से अपना फैसला सुनाया। कांग्रेस ने चुनाव के लिए धुआंधार प्रचार किया। हरियाणा की राजनीति में हमेशा बड़ी दावेदारी का इजहार करने वाली बिरादरी की बेबाक बयानबाजी एवं युवाओं के उच्छृंखल व्यवहार ने हाशिये पर खड़ी बिरादरियों में चिंता पैदा कर दी। ग्रीन ब्रिगेड जैसी ‘लठ संस्कृति’ के अतीत को याद करते हुए कमजोर तबके का वह हिस्सा वापस भाजपा खेमे की ओर मुड़ गया, जो दो दफे की भाजपा सरकार की कारगुजारियों से नाखुश था। इन बिरादरियों ने लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का साथ दिया था और राज्य की आधी लोकसभा सीटें पार्टी की झोली में डाल दी थीं।
दरअसल, हरियाणा की राजनीति में लठ गाड़ने वाली बिरादरी के अति उत्साह ने निशाने पर रही कमजोर बिरादरियों को बिदका दिया। यहां तक कि हरियाणा के कमजोर तबकों ने उन दलों पर भरोसा नहीं जताया, जिन्होंने मायावती की बहुजन समाजवादी पार्टी और चंद्रशेखर आजाद की आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) से गठबंधन किया था। उन्हें बिरादरी विशेष के दबदबे ने फिक्रमंद बना दिया था। नतीजतन, जिस बिरादरी विशेष के ध्रुवीकरण को कांग्रेस अपनी ताकत मानकर चल रही थी और जिन्हें हाईकमान ने खुला हाथ दे रखा था, वो ही उसकी हार की इबारत लिखने की वजह बनी।
हरियाणा के वजूद में आने के बाद यह करिश्मा पहली बार हुआ है कि कोई पार्टी राज्य में लगातार तीसरी बार सरकार बनाने में कामयाब हुई हो। वहीं भाजपा लगातार दो बार की सरकार के खिलाफ उपजी एंटी-इन्कमबेंसी को टालने में कामयाब रही। शुरुआत तो पार्टी ने लोकसभा चुनाव के दौरान ही करीब साढ़े 9 वर्षों तक सूबे के मुख्यमंत्री रहे मनोहर लाल खट्टर को बदलकर और उनकी जगह ओबीसी के नेता नायब सिंह सैनी को हरियाणा की बागडोर थमाकर कर दी थी। भाजपा के रणनीतिकारों को दाद देनी पड़ेगी कि उन्होंने योजनाबद्ध तरीके से कामयाबी की इबारत लिखी। वहीं दूसरी ओर, बड़ी चतुराई से मनोहर लाल खट्टर पर्दे के पीछे रणनीति बनाने में तो लगे रहे मगर चुनाव अभियानों में वे खुलकर सामने नहीं आए। जैसे सत्ताविरोध का गरल उन्होंने धारण कर लिया हो। उधर एक तरफ कांग्रेस जमीन पर व मीडिया में बने माहौल से जीत के प्रति आश्वस्त थी तो भाजपा खामोशी से महीन कात रही थी, यानी माइक्रो मैनेजमेंट कर रही थी। वो छत्तीस बिरादरियों की असुरक्षा को पार्टी के लिये भरोसे में तब्दील करने में लगी थी। पार्टी के कई सिटिंग एमएलए टिकट से महरूम किए गए। यहां तक कि मुख्यमंत्री सैनी का पिछला चुनाव क्षेत्र बदलकर लाडवा कर दिया गया। पार्टी को पता था सीएम सिटी करनाल व आसपास की सीटें तो भाजपा हासिल कर ही लेगी। कई जगह उसने कांग्रेस को हराने वाले अन्य प्रत्याशियों को ताकत भी दी। लेकिन इसके बावजूद विधानसभा अध्यक्ष व आठ मंत्रियों की हार को न टाल सकी।
सतही तौर पर तो कांग्रेस हरियाणा में माहौल बनाने में कामयाब रही, लेकिन उसके नेताओं ने कभी नहीं सोचा कि उसकी रैलियों में बिरादरी विशेष की तो भीड़ है, मगर वंचित वर्ग व अन्य पिछड़ी जातियों की भागीदारी प्रचुर संख्या में नहीं है। उसके सभी सिटिंग एमएलए टिकट पाने में कामयाब हो गये। राज्य नेतृत्व व हाईकमान इस बात की पड़ताल न कर सका कि मौजूदा विधायक क्या फिर से जीतने की स्थिति में हैं। फिर दूसरी ओर ज्यादातर टिकटें हुड्डा खेमे, कुछेक सैलजा खेमे तो कुछ हाईकमान के पैराशूट प्रत्याशियों को दी गई। टिकट वितरण की यह नीति कमोबेश सब गुटों को संतुष्ट करने वाली तो थी, मगर जीत पक्की करने वाली न थी। कहीं-कहीं तो पार्टी प्रत्याशियों को कमजोर करने की बात भी सामने आई। वैसे भाजपा के रणनीतिकारों को आभास हो गया था कि पिछले लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी का करिश्मा पहले जैसा नहीं चला। क्योंकि पिछले लोकसभा चुनाव में हरियाणा में पांच सीटें पार्टी के हाथ से निकल गई थीं। तभी प्रधानमंत्री की गिनी चुनी रैलियां ही हरियाणा में हुई। मोदी व योगी की रैलियों में पहले जैसी भीड़ नहीं जुटी। अंदाजा लगाया गया कि हरियाणा की कथित दबंग बिरादरियों के जलवे देखकर शेष बिरादरियों के लोग खुलकर भाजपा की रैलियों में नहीं जुट रहे थे। वैसे भी आम आदमी लोकल राजनेताओं व कारकूनों की टेढ़ी नजर से बचना चाहता है। यह भी कह सकते हैं कि भाजपा की जीत में आरएसएस की बड़ी भूमिका रही। लोकसभा चुनाव के दौरान ‘बिदका’ संघ परिवार सभी बिरादरियों को एकजुट करने में कामयाब रहा। इस चमत्कारिक जीत में उसके मजबूत संगठन की बड़ी भूमिका रही। ये आने वाला वक्त बताएगा कि बार-बार राम रहीम को दी जाने वाली पैरोल पार्टी के कितने काम आई। इतना जरूर है कि हरियाणा के अवाम ने क्षेत्रीय दलों व वंशवादी पार्टियों को आईना भी दिखाया है। वैसे राजनीति के जानकार मान रहे हैं कि कांग्रेस में आंतरिक गुटबाजी के बावजूद हुड्डा को फ्री हैंड देना भी पार्टी के लिये घाटे का सौदा बना। सिटिंग-गैटिंग का फार्मूला भी नुकसान की वजह बना, पंद्रह विधायक हार गए। हुड्डा को सारी कमान सौंपते वक्त देखा नहीं गया कि शेष बिरादरियों के नेताओं को भी तरजीह दी जानी चाहिए।
पार्टी में केंद्रीय नेतृत्व की पकड़ न होने तथा संगठन का ढांचा जमीनी स्तर पर मजबूत न होने का नुकसान भी पार्टी ने भुगता। सैलजा, सुरजेवाला आदि मुख्यमंत्री पद की दावेदारी तो करते रहे मगर जमीनी स्तर पर पार्टी को जिताने के लिये वैसी मेहनत करते नजर नहीं आए। इधर, कांग्रेस अग्निवीर, किसान व पहलवान के मुद्दे को भुनाने में नाकाम रही। उधर, जीटी रोड के आम लोगों व कारोबारियों को खतरा यह महसूस हुआ कि यदि वाकई कांग्रेस की सरकार बनी तो लगातार होने वाले किसान आंदोलन से सड़कें जाम होने पर उनके कारोबार फिर ठप पड़ सकते हैं। जो भी हो, कांग्रेस के लिये भी यह शिकस्त पर आत्ममंथन करने का वक्त है। बहरहाल, अब जबकि भाजपा को तीसरी बार सत्ता में आने का मौका मिला है तो उसे सोचना होगा कि उसकी नीतियों के खिलाफ आक्रोश क्यों था। पर्ची-खर्ची से मुक्त रोजगार के वादे को उसे जल्द निभाना है। राज्य के एक बड़े वर्ग की पोर्टल, परिवार पहचान-पत्र, प्रॉपर्टी आईडी नीतियों और उन्हें लागू करने में आ रही दिक्कतों से पैदा हुई नाराजगी को दूर करने की जरूरत है। तभी भाजपा इस चमत्कारिक कामयाबी को सार्थक बना सकती है।

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