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दिल के जोखिम

08:01 AM Dec 18, 2023 IST
दिल के जोखिम
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भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों के बारे में अक्सर कहा जाता रहा है कि वे दिल की बीमारियों की दृष्टि से ज्यादा संवेदनशील होते हैं। देश-विदेश में हुए हाल के अध्ययनों ने इस तथ्य की पुष्टि ही की है। पिछले दिनों आई एनसीआरबी की रिपोर्ट ने भी इस पर मोहर लगायी है। निस्संदेह, देश में कार्डियो वैस्कुलर डिजीज यानी सीवीडी अर्थात दिल से जुड़े रोगों से होने वाली जीवन क्षति एक गंभीर समस्या बनी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का यह आंकड़ा चिंता बढ़ाता है कि दुनिया भर में सीवीडी से होने वाली मौतों का पांचवां हिस्सा भारत से है। जो इस संकट की गंभीरता को दर्शाता है। कोरोना संकट के बाद भी देश में हृदयाघात से मरने वालों की संख्या में भी तेजी देखी गई है। वैश्विक रोगों के दबाव विषयक अध्ययन की रिपोर्ट इस संकट की हकीकत बयां कर देती है। जिसमें कहा गया कि वैश्विक स्तर पर जहां प्रति लाख जीवन क्षति का औसत 235 है, वहीं भारत में यह 272 है। दूसरी ओर एनसीआरबी आंकड़े इस संकट की तस्वीर उकेर देते हैं। जिसमें कहा गया है कि हृदयाघात से अचानक होने वाली जीवन क्षति का आंकड़ा जहां 2021 में साढ़े पचास हजार था, वह 2022 में बढ़कर साढ़े छप्पन हजार के करीब पहुंच गया। दरअसल, दिल से जुड़े रोग हमारी जीवनशैली में आए बदलावों की भी देन है। लगातार जटिल होती जीवन व कार्य परिस्थितियां व अराजक खानपान भी इस समस्या के मूल में है। हमारे जीवन में घटता शारीरिक श्रम व खानपान की गुणवत्ता में गिरावट भी समस्या बढ़ाती है।
इस जटिल समस्या का एक सकारात्मक पक्ष भी है। चिकित्सा विशेषज्ञ बताते रहे हैं कि सजगता व कुछ प्रयासों से इस जीवन क्षति को टाला जा सकता है। जिसमें महत्वपूर्ण भूमिका कार्डियो पल्मोनरी रिससिटेशन यानी सीपीआर की होती है। यदि समय रहते हृदय रोगी को सीपीआर जैसी प्राथमिक चिकित्सा सहायता उपलब्ध करा दी जाए तो उसकी जान बचाई जा सकती है। व्यक्ति की सांस रुके या दिल की धड़कनें बंद हो रही हों, तो यह तकनीक खासी लाभप्रद साबित हो सकती है। जरूरी नहीं है कि मरीज को इसको देने के लिये तुरंत अस्पताल ले जाना हो या किसी उपकरण की जरूरत पड़े। लेकिन विडंबना यह है कि बहुत कम लोगों को इसका प्रशिक्षण दिया गया है। भारत में इस संबंध में जागरूकता भी बेहद कम है। यद्यपि कुछ चिकित्सा व सामाजिक संगठन इस बाबत लगातार जागरूकता अभियान चलाते रहते हैं, लेकिन गांव-देहात में इसका दायरा बढ़ाने की जरूरत है। विकसित देशों में सार्वजनिक स्थलों पर ऑटोमेटेड एक्सटर्नल डिफाइब्रिलेटर्स की सुविधा उपलब्ध होती है। जिसके लिये लोगों को जागरूक व प्रशिक्षित किया जाता है। दरअसल, यह एक ऐसा उपकरण है जिसे लोग अपने साथ लेकर चल सकते हैं और सांसों को प्रवाह बाधित होने पर इलेक्ट्रिक शॉक के जरिये उसे नार्मल करने के प्रयास होते हैं। लेकिन इसके साथ ही हमें अपने खानपान, सहज व्यवहार और शारीरिक श्रम बढ़ाने पर ध्यान देना होगा। योग व प्राणायाम भी इस तरह की बीमारियों को दूर करने में मददगार हैं। बहरहाल, राष्ट्रीय स्तर पर इस बाबत जागरूकता अभियान चलाने की जरूरत है।

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