हृदय और तृष्णा
अनीता
हमारी असल तृष्णा क्या है। तृष्णा असल होगी तो उसका निराकरण भी असल होगा। यूं तो कदम-कदम पर भटकाव है। जितने भटकाव, उतने ही अटकाव। इस भटकाव और अटकाव के बीच में ही हमें तृष्णा का मतलब समझना होगा। अब तृष्णा है तो मिटे कैसे? रामरस के बिना हृदय की तृष्णा नहीं मिटती। परम प्रेम हमारा स्वाभाविक गुण है, उससे च्युत होकर हम संसार में आसक्त होते हैं। कृष्ण का सौंदर्य, शिव की सौम्यता, और राम का रस जिसे मिला हो वही धनवान है। इस सौंदर्य, इस सौम्यता और इस रस के मर्म को हमें समझना होगा। जिस प्रकार धरती में सभी फल, फूल व वनस्पतियों का रस, गंध व रूप छिपा है वैसे ही उस परमात्मा में सभी सद्गुण, प्रेम, बल, ओज, आनंद व ज्ञान छिपा है, संसार में जो कुछ भी शुभ है वह उसमें है तो यदि हम स्वयं को उससे जोड़ते हैं, प्रेम का संबंध बनाते हैं तो वह हमें इस शुभ से मालामाल कर देता है।
दुःख हमसे स्वयं ही दूर भागता है, मन स्थिर होता है। धीरे-धीरे हृदय समाधिस्थ होता है। एक बार उसकी ओर यात्रा शुरू कर दी तो पीछे लौटना नहीं होता...। दिव्य आनंद हमारे साथ होता है और तब यह जीवन एक उत्सव बन जाता है। हम देखते हैं कि व्यवहार क्षेत्र में पहले मन में विचार या भाव जगता है फिर क्रिया होती है; पर अध्यात्म क्षेत्र में यदि पहले कोई भी पवित्र क्रिया की जाये तो भाव अपने आप पवित्र होने लगते हैं।
श्रवण या पठन क्रिया है पर श्रवण के बाद मनन फिर निदिध्यासन होता है। इंद्रदेव हाथ के देवता हैं, सो हमारे कर्म पवित्र हों जो भाव को शुद्ध करें। मुख के देव अग्नि हैं, अतः वाणी भी शुभ हो। मानव तन एक वेदिका के समान है जिसमें प्राण अग्नि बनकर प्रज्वलित हो रहे हैं। प्राणाग्नि बनी रहे इसलिए प्राणों को हम भोजन की आहुति देते हैं। देह रूपी वेदी दर्शनीय रहे, पवित्र रहे इसलिए सात्विक आहार ही लेना उचित है।
मन का समता में ठहरना अर्थात अतियों का निवारण ही योग है। ऐसा योग साधने से मन प्रसन्न रहता है और भीतर ऐसा प्रेम प्रकटता है जो शरण में ले जाता है। शरणागति से बढ़कर मुक्ति का कोई दूसरा साधन नहीं है। इसलिए शरणागत रहिए। मन से, वाणी से और कर्मों से शुद्ध रहिए। हमारी सोच शुद्ध होगी तो हमारी तृष्णा शुद्ध होगी और जब तृष्णा शुद्ध होगी तो उसका निराकरण भी शुद्धता से होगा और यही निराकरण ईश्वर प्राप्ति है।
साभार : अमृता-अनीता डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम