व्यवस्थात्मक रुग्णता झेल रहे स्वास्थ्य केंद्र
बेहाल अस्पताल
दीपिका अरोड़ा
काया व कार्यक्षमता में परस्पर गहरा संबंध है। काया रुग्ण हो तो न केवल कार्यक्षमता दुष्प्रभावित होगी अपितु समूची दिनचर्या भी गड़बड़ा जाएगी। इसी के दृष्टिगत स्वास्थ्य कार्यबल देश के सर्वाधिक महत्वपूर्ण संसाधनों में से एक माना गया है। निःसंदेह विगत कुछ वर्षों के दौरान देश ने चिकित्सीय क्षेत्र में प्रशंसनीय उपलब्धियां प्राप्त कीं, बावजूद इसके भारतीय चिकित्सा प्रणाली राष्ट्रीय स्तर पर कार्यबल की भारी कमी एवं इसके असमान वितरण संबंधी समस्या का निराकरण नहीं कर पाई। ज्वलंत प्रमाण हैं हरियाणा में कैथल ज़िले के अंतर्गत आने वाले आठ प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, जिन्हें विभिन्न प्रकार की चिकित्सीय अव्यवस्थाओं का सामना करना पड़ रहा है। कहीं चिकित्सा अधिकारियों से लेकर डेंटल सर्जन, औषधाकार, स्टाफ नर्स आदि का अभाव खटक रहा है तो कहीं पर्याप्त मात्रा में समुचित दवाइयां न मिल पाने की ख़बरें हैं।
केवल हरियाणा ही नहीं, लगभग सभी राज्यों में कमोबेश यही स्थिति है। विशेषकर भारतीय चिकित्सा व्यवस्था ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्रों में एमओ को आकर्षित करने एवं बनाए रखने में काफी हद तक विफल रही है। समग्र आंकड़ों के अनुसार, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में एमओ के लिए रिक्ति दर लगभग 21 प्रतिशत है। ‘रूरल हेल्थ स्टेटिस्टिक्स 2021-22’ की रिपोर्ट के मुताबिक़, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर 39,669 चिकित्सकों की आवश्यकता होने पर भी 9451 पद रिक्त हैं। ग्रामीण भारत में 9,742 प्राथमिक केंद्रों का अभाव पाया गया।
ग़ौरतलब है, भारतीय संविधान का अनुच्छेद 47, पोषण व जीवन स्तर को बढ़ाने तथा सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार करने हेतु राज्य संबंधी निर्देश देकर सरकार की प्रतिबद्धता को स्थापित करता है। सभी नागरिकों को ससम्मान, गरिमापूर्वक गुणवत्तापूर्ण सेवाएं प्रदान के मद्देनज़र ही ‘भारतीय लोक स्वास्थ्य मानक’ निर्धारित किए गए। वर्ष 2005 में, भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन) स्वास्थ्य के व्यापक सामाजिक कारकों व निर्धारकों को संबोधित करते हुए लोगों को स्वास्थ्य संबंधी ज़रूरतों को पूरा करने के उद्देश्य से जवाबदेह और उत्तरदायी, सस्ती व गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सम्बन्धी सेवाओं तक सार्वभौमिक पहुंच सुनिश्चित करने के लिए स्थापित किया गया था। वस्तुतः स्वास्थ्य नैतिक व संवैधानिक मूल्यों से जुड़ा हुआ विषय माना गया।
हालांकि, हरियाणा में नए मेडिकल कॉलेज खोले जाने संबंधी घोषणा हो चुकी है तथापि स्टाफ उपलब्धता का विषय अभी तलक सवालिया घेरे में है। विभागीय विज्ञप्ति अनुसार, प्रांत की जनसंख्या के लिहाज़ से 10,000 डॉक्टरों की ज़रूरत होने पर भी केवल 4,000 डॉक्टर उपलब्ध हैं। ‘हरियाणा सिविल मेडिकल सर्विसेज़ एसोसिएशन’ के मुताबिक़, राज्य लगभग 800 डॉक्टरों तथा 3,500 कैडर की कमी से जूझ रहा है।
अपने नागरिकों को सर्वस्तरीय सस्ता उपचार उपलब्ध करवाना सरकारों का नैतिक कर्तव्य है। क्षेत्र निवासियों को प्राथमिक उपचार हेतु लंबी दूरी न नापनी पड़े, इसी के मद्देनज़र प्रत्येक प्रांत में सामान्यतः 20 हज़ार की आबादी पर एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र खोला जाता है। कैथल ज़िले के अधीनस्थ आठ प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में से प्रत्येक के ज़िम्मे पांच से दस गांव लोगों के इलाज का दायित्व बनता है किंतु यदि न स्टाफ पूरा हो, न ही अपेक्षित दवाइयां तो भला उपचार कैसे संभव होगा?
भारत में एमबीबीएस दाख़िला प्राप्ति हेतु प्रतिवर्ष आयोजित नीट परीक्षा में प्राप्त रैंक के आधार पर ही छात्रों को कॉलेज तथा कोर्स आवंटित किए जाते हैं। सीमित सीटों के चलते, चुनींदा छात्र ही अच्छे सरकारी कॉलेज में प्रवेश पाने हेतु सफल हो पाते हैं। नौकरी मिलने पर भी हालात कम चुनौतीपूर्ण नहीं होते। सरकारी चिकित्सकों के अनुसार, क्लास वन अधिकारी होने के बावजूद सुविधाएं उसके अनुरूप नहीं मिल पातीं। रेखांकित अनेकानेक कारणों में असंतोषजनक कामकाज़ी परिस्थितियां, असंतुलित डॉक्टर-मरीज़ अनुपात के कारण काम का भारी बोझ, असुरक्षित वातावरण, निजी अस्पतालों की तुलना में कम वेतनमान, वीआईपी ड्यूटी तथा मेडिको-कानूनी मामले आदि शामिल हैं। शिकवा यह भी है कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम) के तहत काम करने वाले संविदा डॉक्टरों को नियमित डॉक्टरों की तुलना में डेढ़ गुणा अधिक वेतन मिलता है।
यही कारण है, अधिकतर डॉक्टर अपनी पहचान स्थापित करने के पश्चात, निजी तौर पर प्रैक्टिस को अधिमान देते हैं अथवा बेहतर भविष्य की आशा में अन्य संस्थानों की ओर रुख़ करना सही समझते हैं। युवाओं द्वारा उच्च अध्ययन या विशेषज्ञता हासिल करने की मंशा से सीट मिल जाने पर नौकरी छोड़ देना भी बढ़ती कमी में इज़ाफ़ा होने का एक बड़ा कारण है।
कारण चाहे जो भी हों ख़मियाजा अंततः आम जनता को ही भुगतना पड़ता है, कभी निजी संस्थानों की मुंहमांगी फ़ीस चुकाकर तो कभी समयानुकूल समुचित उपचार के अभाव में अनमोल जीवन गंवाकर। सरकारी नौकरी से चिकित्सकों का पलायन रोकना हो अथवा भर्ती पदों की संख्या बढ़ाना; आधारभूत ढांचे में अपेक्षित सुधार लाए बिना लक्ष्य प्राप्ति संभव नहीं। विचारणीय है, स्वयंमेव व्यवस्थात्मक रुग्णता झेल रहे स्वास्थ्य केंद्र रोगियों का उपचार कैसे करेंगे? मुद्दा जब राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन से जुड़ा हो तो सरकार का समाज के प्रति उत्तरदायित्व गंभीर बन जाता है।