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सेहत की कैंटीन

07:56 AM Jul 19, 2024 IST
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यह तथ्य किसी से छिपा नहीं कि भारत धीरे-धीरे मधुमेह, हृदय रोग व मोटापे की राजधानी बनता जा रहा है। देश के हर चार में से एक व्यक्ति मोटापे व प्री-डायबिटिक स्थिति में पहुंच गया है। संकट इसलिए बड़ा है कि किशोर व युवा भी इसके चपेट में आ रहे हैं। रात दिन मोबाइल-लेपटॉप में लगे रहने और शारीरिक श्रम से दूर पीढ़ी के लिए फास्ट फूड खासा घातक साबित हो रहा है। यही वजह है कि कई सर्वेक्षणों के निष्कर्ष व विशेषज्ञों की सिफारिश के बाद देश के विश्वविद्यालयों का नियमन करने वाली राष्ट्रीय संस्था विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने कॉलेजों को निर्देश दिये हैं कि कॉलेज की कैंटीन में पिज्जा, बर्गर और समोसे जैसे जंक फूड की बिक्री पर रोक लगाई जाए।। दरअसल, छात्रों में बढ़ते मोटापे और मोटापे से जनित अन्य रोगों की समस्या के मद्देनजर यूजीसी ने कहा है कि शैक्षणिक संस्थानों में स्वास्थ्य के लिये नुकसानदायक खाद्य पदार्थों की बिक्री पर तुरंत रोक लगायी जाए। निस्संदेह, नई पीढ़ी में जंक फूड को लेकर खासा क्रेज है, लेकिन युवाओं के स्वास्थ्य को लेकर कोई समझौता नहीं किया जा सकता। हाल के दिनों में युवाओं में मधुमेह, मोटापे व हृदय संबंधी विकार के मामले तेजी से बढ़े हैं। कुछ माह पूर्व आयी आईसीएमआर की रिपोर्ट में भी चिंता जताई गई थी कि देश में तेजी से बढ़ रहे अल्ट्रा-प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थों में वसा की अधिक मात्रा पायी जाती है। जो मोटापा बढ़ने का बड़ा कारण है। जो कालांतर हृदयाघात,डायबिटीज आदि गैर संक्रामक बीमारियों की वजह बनता है। आईसीएमआर ने अच्छे स्वास्थ्य को मानव के मौलिक विशेषाधिकार की संज्ञा दी है। दूसरी ओर मानव पोषण, महामारी विज्ञान, चिकित्सा शिक्षा, बाल रोग व सामुदायिक उपचार आदि के स्वतंत्र विशेषज्ञों के राष्ट्रीय थिंक टैंक एनएपीआई ने भी इसी प्रकार की चिंताएं जतायी हैं। एनएपीआई ने भी शैक्षणिक संस्थानों में अस्वास्थ्यकर खाद्य पदार्थों पर तुरंत रोक लगाने की सलाह दी है। साथ ही कैंटीन में स्वस्थ खाद्य पदार्थों के विकल्प बढ़ाने पर जोर दिया है।
बहरहाल, अब शिक्षण संस्थाओं के प्रबंधकों व शिक्षकों का दायित्व है कि कालेजों की कैंटीनों में स्वस्थ खाद्य पदार्थों के विकल्प उपलब्ध करायें। साथ ही छात्रों को इस दिशा में आगे बढ़ने को प्रेरित करें। निस्संदेह, केवल यूजीसी के निर्देशों से हालात बदलने वाले नहीं हैं। दरअसल, यूजीसी ने इस बाबत पहली बार दिशा-निर्देश नहीं दिये हैं। इससे पहले दस नवंबर 2016 तथा इक्कीस अगस्त 2018 को भी इसी तरह के परामर्श जारी किये गए थे। विडंबना यह है कि युवा पीढ़ी पाश्चात्य खानपान शैली का अंधानुकरण कर रही है। किसी देश का खानपान उस देश की जलवायु तथा रोगों की आनुवंशिकता के आधार पर तय होता है। युवा पीढ़ी मौसमी फल, सब्जियों तथा परंपरागत खाद्य पदार्थों से परहेज कर रही है। सदियों से हमारे खानपान में उन तमाम खाद्य पदार्थों से परहेज किया गया, जो तामसिक प्रवृत्ति के हैं और त्रिदोष को बढ़ावा देने वाले हैं। सही मायने में हमारे खानपान में एसिड बढ़ाने वाले पदार्थों का बोलबाला है। जबकि हमें क्षारीय प्रवृत्ति वाले खाद्य पदार्थों का सेवन भी संतुलन के लिये करना चाहिए। दरअसल, समय के साथ देश में संपन्नता आई है और समृद्ध खानपान की शैली विकसित हुई है, लेकिन विडंबना यह है कि हमारी जीवन शैली में श्रम की प्रधानता घटी है। श्रमशील व गतिशील व्यक्ति को सब कुछ हजम हो जाता है, लेकिन निष्क्रिय जीवन शैली मोटापे, मधुमेह व हृदय रोगों को बढ़ावा देती है। चिंता की बात यह है कि जो रोग पहले व्यक्ति को पचास साल के बाद होते थे, वे अब किशोरों व युवाओं को अपनी गिरफ्त में ले रहे हैं। हाल ही में एक प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय मैगजीन ने खुलासा किया था कि कैसे भारत में पचास फीसदी लोग सप्ताह में जरूरी व्यायाम व सैर तक नहीं करते। निश्चित रूप से यह एक राष्ट्रीय संकट का प्रश्न है। जिसके चलते आने वाले दिनों में देश गैर संक्रामक रोगों की राजधानी बनने की ओर अग्रसर है। शिक्षकों के साथ अभिभावकों को भी छात्रों को स्वस्थ खानपान के प्रति जागरूक करना होगा।

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